रक्षार्थं वेदानाम्
एक कदम जीवन रक्षा की ओर!
इस संसार में ऐसा कौन है जो स्वतन्त्रता, निर्भयता, सुख, शान्ति, तृप्ति व आनन्द नहीं चाहता हो। ऐसा कोई भी नहीं है जो दु:ख चाहता हो। यह सर्वतन्त्र सिद्धांत है इसका कोई अपवाद भी नहीं है। सभी जीव सुख प्राप्त करना चाहते हैं और दु:खों से निवृत्ति चाहते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि निर्भयता, स्वतन्त्रता, सुख, शान्ति, आंनद किसी बाजार में नहीं बिकता। आज मानव अज्ञानता की गहरी खाई में ऐसा गिर गया है कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए चिकित्सक व दवाइयाँ खोज रहा है, जीने का ढंग नहीं खोज रहा। मानस रोग, क्रोध, चिंता, तनाव से घिरा लक्ष्यहीन जीवन व भविष्य की अनहोनी आशंका से भयभीत मानव औषधियों से उपचार करना चाहता है। जबकि वह भली-भाँति समझता है कि दवाइयाँ इंजेक्शन आदि केवल शरीर तक पहुँचते हैं, मन तक नहीं पहुँचते और चंचलता, क्रोध, हिंसा, भय, चिंता आदि मन के रोग है शरीर के नहीं। मन के लिए कोई वैक्सीन नहीं बन सकती। हाँ नशे की दवाइयाँ, दर्दनाशक औषधियाँ शरीर मे ड़ालकर बेहोशी पैदा हो सकती है, लेकिन उसे आंनद विश्रांति देने वाली निद्रा नहीं कहा जा सकता। कृत्रिम जीवन है, स्वाभाविक नहीं, जो दु:ख का ही रास्ता बना रहा है। विज्ञान कितना भी विश्वास जगाता रहे कि वह मानव के इन मानसिक व शारीरिक रोगों का समाधान कर देगा, लेकिन अध्यात्म कहता है कि जो मनुष्य औषधियों से, धन-साधन या भौतिक पदार्थों से दु:ख हटाने/मिटाने व नित्य सुख-शान्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करेगा वह रोते हुए प्रायश्चित ही करेगा।
इसलिए पाठक जन यह न समझे कि इससे पहले हम बहुत कुछ इस विषय में पढ़ चुके हैं। यदि पढ़ भी चुके हैं तो क्या हुआ? एक यह भी सही। कही मानव बहुत बड़ी भूल कर रहा है, रास्ता भटक गया है, तो जब तक रास्ता नहीं मिल जाए तब तक खोज़ जारी रहनी चाहिए। कौन जानता है कि किसी सद्ग्रन्थ का अगला पृष्ठ आपका जीवन बदल कर रख देगा।
जीवन का जो पृष्ठ पढ़ना आपसे छूट गया था, जो पढ़ा उसे एक बार आँखे खोल कर पढ़ लीजिए, वरना इस देश में घातक पतनकारी साहित्य से कितने कागज़ काले हो चुके हैं। उसकी कोई क्षतिपूर्ति भी नहीं कर सकता, और फिर अंत में यही कहना बहुत दु:खद होता है कि काश यह ज्ञान मुझे पहले हो गया होता।
आचार्य लोकेन्द्र:
(वैदिक प्रवक्ता एवं दर्शनाचार्य)
वेद (Ved)
जीवन की समस्याओं का समाधान
वेद भारतीय संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम ग्रंथ है। वेदमन्त्रों की रचना स्वयं परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के आदि में की थी। वेद ज्ञान नित्य है। हर सृष्टि में ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना के समय प्रथम मनुष्य को दिया जाने वाला ज्ञान वेद है। वेद के अनुसार सृष्टि-प्रलय का अनादि चक्र चल रहा है जो अनंत काल तक चलता रहेगा। Read more...
त्रैतवाद (Tretavad)
ईश्वर, जीवात्माएँ और प्रकृति इन तीनों की पृथक सत्ता वेद मानता है इसे ही त्रैतवाद कहते हैं।
इस संसार में जीवात्माएँ हैं, प्रकृति है अर्थात जड़ जगत तथा एक ईश्वर है। इन तीनों के बिना व्यवहार नहीं चल सकता। जिस प्रकार कोई डॉक्टर हो, दवा हो, लेकिन रोगी ना हो तो कोई मतलब नहीं है। यदि रोगी है, डॉक्टर है और दवा नहीं है तो भी व्यवहार नहीं चलेगा। दवा भी होनी चाहिए, डॉक्टर भी होना चाहिए और रोगी भी चाहिए। इसी तरह जैसे दुकानदार होना चाहिए, ग्राहक भी होना चाहिए और सामान भी होना चाहिए। तीनों के बिना व्यापार नहीं चलता। जैसे अध्यापक, विद्यार्थी और पुस्तक आदि साधन होने चाहिए तब व्यवहार चलते हैं। इस संसार में यह सभी जीवात्माएँ रोगी की तरह है और ईश्वर रोग निवारक वैद्य की तरह तथा प्रकृति लक्ष्य तक पहुँचने के लिए औषध की तरह है। इन तीनों के पृथक अस्तित्व को माने, जाने बिना मोक्ष संभव नहीं है।
ईश्वर (God)
ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, और सृष्टिकर्ता है। जिसका नाम "ओ३म्" है। Read more...
जीवात्माएँ (Soul)
"अत सातत्यगमने" इस मूल धातु से आत्मा शब्द का अर्थ सतत गमन करने वाला या निरन्तर पुरूषार्थ करना जिसका धर्म है। वह आत्मा है। यह चेतन है अर्थात् चितिशक्ति से युक्त या कहे कि ज्ञान से युक्त होता है।
वह अणु परिमाण (सूक्ष्म) है, एकदेशी, अजर-अमर, अविनाशी, अल्पशक्तिवाला, अल्पज्ञ, प्रकृति के साथ बंधन में आने वाला चेतन है। जीवात्माएँ असंख्य है, हम गिन नहीं सकते। ईश्वर ही जीवात्माओं की संख्या जानता है। Read more...
प्रकृति (Prakriti)
यह अचर तथा अचेतन तत्व है जिसे पदार्थ भी कहते हैं। इसी जड़ पदार्थ को "प्रकृति" कहते हैं जिससे जगत बना है। लोक में प्रचलित 'प्रकृति' शब्द सृष्टि के लिए प्रयुक्त होता है जो कि सही नहीं है। सृष्टि 'रचना' को कहते हैं, निर्माण का नाम सृष्टि है। प्रकृति का अन्य नाम 'माया' है यह संसार का उपादान कारण अर्थात यह जगत जिससे बना उसका नाम प्रकृति है। यह संसार का सबसे छोटा (स्मालेस्ट पार्टिकल) कण है अर्थात पूरे जगत का मूल है (रो मैटेरियल) है। Read more...
दु:ख (Sorrow)
"प्रतिकूल वेदनीयं दुखम्।"
जो आत्मा को प्रतिकूल है। मन के विरूद्ध है, जो हमें अच्छा नहीं लगता। आत्मा/ जीव जिसे नहीं चाहता। आत्मा का स्वभाव जो नहीं है। जिसे हम स्वीकार नहीं करते।वह दुःख है। Read more...
शरीर (Body)
हम सब जीवात्माओं को ईश्वर कोई न कोई शरीर साधन के रूप में देता है। जिस शरीर के अंदर रहकर हम अपना कार्य संपन्न करते हैं। यह शरीर ही सुख-दु:ख भोग का साधन है और यह मनुष्य शरीर ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है। Read more...
स्वास्थ्य (Health)
स्वस्थ कौन है? यह जानने से पहले यह प्रश्न उठता है कि "स्वस्थ" कहते किसको है?
"स्वस्थ = स्व+स्थ" अर्थात अपने स्वरूप में स्थित हो जाना।
इसका उत्तर महर्षि कपिल मुनि सांख्य दर्शन के द्वितीय अध्याय के 34 वे सूत्र में इस प्रकार दे रहे हैं। Read more...
मन या चित्त (Mind)
मनुष्य जिसके द्वारा मनन करता है वह मन है। मन सूक्ष्म है ओर अणु परिमाण वाला होता है। Read more...
बुद्धि (Intellect)
बुद्धि कहते ही हमारे ध्यान में सिर में स्थित मस्तिष्क आ जाता है यह मस्तिष्क तो स्थूल बुद्धि है। सूक्ष्म बुद्धि यानी विवेक, जो योग्य और अयोग्य का निर्णय करती है। वह दिखाई नहीं देती। शुद्ध बुद्धि सूक्ष्म विषयों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं। बुद्धि का कार्य ज्ञान प्राप्त करना है। यह वस्तु उपयोगी है और यह हानिकारक है, यह निर्णय करना है इसलिए इसे टेस्टर भी कहा जा सकता है। Read more...
ध्यान या संध्या (Dhyan/Sandhya)
ईश्वर का ध्यान/ संध्या करने के नियम।
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सूर्योदय से २ घंटे पूर्व उठकर शौच, व्यायाम, स्नान आदि के बाद ध्यान या संध्या करें। स्नान न करने की स्थिति में हाथ पैर मुख धोकर करें।
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एकांत स्थान का चयन करें प्रतिदिन स्थान न बदले। Read more...
योग (Yog)
'योग' शब्द संस्कृत भाषा में युजिर् योगे, युज् समाधौ व युज् संयमने धातुओं से निष्पन्न होता है। जिसके अर्थ है, जोड़ना, समाधि व संयम।
आज तो संसार में योग शब्द को योगा कहकर के पुकारा गया जो कि इसके मूल से ही हट गया है। Read more...
सनातन धर्म (Sanatan Dharm)
जो सदा से चलता आया है वह सनातन है। वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है, क्योंकि सदा से है। यही सार्वभौमिक(सभी के लिए), सार्वकालिक(सभी समय में), सार्वदेशिक(सभी स्थानों पर), वैज्ञानिक, तार्किक व सृष्टि नियम के अविरूद्ध है।
सनातन धर्म सृष्टि के आदि से हैं, आरंभ से हैं। इससे पहले सृष्टि में भी था। यदि इस सृष्टि में इसका समय देखें तो भी जब से दुनिया में मनुष्य ने प्रथम बार आँखें खोली तब से अब तक और जब तक यह संसार रहेगा तब तक सनातन धर्म ही शेष रहेगा। Read more...