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आयुर्वेद

हमारा अतीत, वर्तमान, भविष्य और गौरव

Pranayam

प्राणायाम (Pranayam)

आज संपूर्ण संसार में प्राय सभी मनुष्य किसी न किसी बीमारी से पीड़ित है। सत्य तो यही है कि हमने अपनी गलतियों के कारण ही अपने इस सुंदर और सुख देने वाले शरीर को कुरूप और दु:ख का साधन बना लिया है। यह हमारा आचरण तो वेद विरुद्ध है। वास्तव में हमने वेद की विद्या को न जानकर, न समझ कर, उसे व्यवहार में न लाकर अपना ही अनिष्ट किया है। वेद विज्ञान की उपेक्षा के कारण ही हमने सुखों का आधार अपने इस अमूल्य शरीर को नरक या दु:ख का घर बना लिया है। शरीर ही समस्त सुखों की प्राप्ति का और सभी धर्म कर्मों का साधन बनता है। आयुर्वेद में तो यह कहा गया है कि-

🌷सर्वमन्यत् परित्यज्य शरीरमनुपालयेत्। तदभावे हि भावानां सर्वाभाव: शरीरिणाम्।।(चरक संहिता, नि.अ.६/७)

अर्थात् संसार के अन्य सभी कार्यों को छोड़कर पहले शरीर का रक्षण पालन करना चाहिए। अर्थात पहले इसे स्वस्थ रखना चाहिए, क्योंकि शरीर का अभाव हो जाने पर अन्य सभी वस्तुओं का अभाव हो जाता है।

शरीर को स्वस्थ बनाने के लिए सबसे उत्तम विधि योग ही है। योग के एक अंग प्राणायाम को लेकर हम बात करेंगे कि कैसे प्राणायाम से विधिवत् अभ्यास करके अपने शरीर को पूर्ण स्वस्थ और सुंदर बनाया जा सकता है। प्राणायाम में इतनी अधिक शक्ति है कि वह हमारे शरीर के समस्त विकारों और दोषों को समाप्त कर इस शरीर को सुख का साधन बना सकते हैं।

प्राणायाम के बारे में सामान्य जानकारी (General information about Pranayam)

योगियों के उपदेश के अनुसार प्राणायाम का अभ्यास करने पर किसी प्रकार का रोग नहीं रहता। प्राणायाम के अभ्यास से उन्नति होती है तथा योग सिद्ध होने में सहायता मिलती है। 

योगाभ्यास की परंपरा के अनुसार नासिका रंध्र(nostrils) द्वारा शरीर के अंदर वायु भरने का नाम पूरक(inhale) है तथा शरीर के भीतर की वायु को बाहर निकालने का नाम रेचक(exhale) है। शरीर के अंदर वायु भरकर अंदर रोकने का नाम आभ्यंतर कुंभक तथा श्वास को बाहर निकालकर बाहर रोकने का नाम बाह्य कुंभक है। रेचक, पूरक तथा कुंभक प्राणायाम के तीन मुख्य अंग है। कुंभक में श्वास-प्रश्वास बंद हो जाता है। कुंभक स्वाभाविक नहीं होता, अपितु इसका विशेष अभ्यास करना पड़ता है। श्वास-प्रश्वास के साथ-साथ जीव का स्वभाविक रूप से ही सर्वदा रेचक-पूरक होता रहता है। परंतु योगाभ्यास के समय इस साधारण नियम का उल्लंघन करके योग शास्त्र में वर्णित नियमों का पालन करना और स्वभाविक सांसों की गति को तोड़कर एक विशेष विधि से स्वास लेना और छोड़ना यही लाभकारी है। प्राणायाम के साथ-साथ भ्रूमध्य(आज्ञा चक्र) में ध्यान भी किया जाता है।

बंध - मल, मूत्रेन्द्रिय के आकुंचन अर्थात सिकुड़न का नाम मूलबंध है। श्वास को बाहर निकाल कर पेट को अंदर पीठ के साथ मिलाने का नाम उड्यानबंध है तथा श्वास को अंदर भर कर ठोडी को गले में लगाने का नाम जालंधरबन्ध है । मूलबंध, उड्यानबन्ध तथा जालंधरबन्ध पूर्वक प्राणायाम करने से प्राणों पर शीघ्र अधिकार हो जाता है। मूलबंध तथा उड्याणबंध का अभ्यास सिद्ध होने पर चित्त की एकाग्रता संपन्न होने लगती है। 
 
योग दर्शन के अनुसार प्राणायाम चार प्रकार का है - बाह्य, आभ्यंतर, स्तंभवृत्ति और बाह्यआभ्यंतर विषयक्षेपी। यह प्राणायाम सरल और अधिक लाभदायक एवं शीघ्र संपन्न होने वाले हैं।

बाह्य प्राणायाम - श्वास को बाहर निकाल कर बाहर रोकने का नाम बाह्य प्राणायाम है। इससे रक्त शुद्धि, नाडी शुद्धि, पाचन शक्ति की वृद्धि, अनहद नाद की अनुभूति, स्मरण शक्ति की वृद्धि तथा मन की स्थिरता आदि लाभ होते हैं।

 

आभ्यंतर प्राणायाम - श्वास को थोड़ा-थोड़ा टुकड़े-टुकड़े में लेना, यथासामर्थ्य अंदर भरना वह यथाशक्ति रोकने का नाम अभ्यंतर प्राणायाम है। इससे मनुष्य बहुत बलवान बन जाता है। अद्भुत बल प्राप्त होता है।

स्तंभ वृत्ति प्राणायाम -  श्वास को यथावत् जहां का तहां रोकने/स्थिर रखने का नाम स्तंभवृति प्राणायाम है। इससे मन इच्छा अनुसार कहीं पर भी स्थिर होता है।

बाह्याभ्यंतर विषयक्षेपी प्राणायाम -  जब प्राण को अंदर भर रहे हैं तब भरने के बाद प्रयत्न पूर्वक ओर अधिक धक्का देकर अंदर ही बार बार खींचने का प्रयास करना  व  श्वास को पूरा बाहर निकाल दिया है तो भी प्रयत्न पूर्वक ओर अधिक धक्का देकर बाहर ही निकालना। जब प्राण अंदर जाना चाहें तब उसके विपरीत ओर अधिक प्रयास से बाहर ही रोकने तथा जब प्राण बाहर जाना चाहे तब उसके विपरीत अंदर ही थोड़ा प्रयास से रोकने का  नाम बाह्यअभ्यंतरविषयक्षेपी प्राणायाम है। इससे शरीर में प्राण बढ़ाने की क्रिया सिद्ध होती है।

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शरीर में स्थित वायु के भेद (Differences of air in the body)

शरीर में स्थित वायु के पांच मुख्य तथा पांच गौण भेद है।

मुख्य वायु-

  • प्राण - यह वायु नासिका मार्ग से कंठ, वक्षस्थल और जिह्वा में क्रियाशील रहता है। इसके बल से ही नासिका, वाणी, हृदय, फेफड़े, आहार नली आदि कार्य करते हैं।

  • अपान-  यह वायु नाभि के नीचे से लेकर पैरों के अंगूठे तक क्रियाशील रहता है। इसके बल से ही नाभि से नीचे के सभी अंग मूत्राशय, गर्भाशय, बड़ी आंत, जंघाये, मल-मूत्र द्वार आदि कार्य करते हैं। मल-मूत्र विसर्जन की क्रिया भी इसी अपान वायु के सहयोग से हो पाती है।

  • व्यान-  यह वायु संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। इसके बल से शरीर के सभी अंगो का संचालन होता है। सभी जोड़ों(जॉइंट्स) पर इसी का प्रभाव रहता है।

  • समान - यह वायु वक्ष स्थल से नीचे नाभि तक क्रियाशील रहता है। इसके बल से ही यकृत, प्लीहा, अग्न्याशय, पक्वाशय तथा पाचन तंत्र कार्य करता है।

  • उदान - यह वायु नाभि से ऊपर की ओर कंठ तथा सिर तक क्रियाशील रहता है। इसके बल से ही वाणी तथा कंठ के ऊपर के अंगों नेत्र, कर्ण, नासिका का संचालन होता है। तथा यही वायु स्फूर्ति तथा शारीरिक बल, रंग तथा मुखमंडल को आभा प्रदान करता है।

गौण वायु (उपप्राण)-

  • नाग - यह प्राणवायु का उपवायु/उपप्राण है। इसका स्थान मुख है। इसका मुख्य कार्य डकार एवं हिचकी लाना है।

  • कूर्म-  यह अपान वायु का उप वायु है। इसका स्थान नेत्रों की पलकों में है। इसका मुख्य कार्य पलक झपकना, नेत्र खोलना/ निमेष-उन्मेष है।

  • कृकल-  यह समान वायु का उपवायु है। इसका स्थान नाभि है तथा इसका मुख्य कार्य क्षुधा, तृषा, भूख-प्यास लगाना है।

  • देवदत्त - यह उदान वायु का उपवायु है।  इसका स्थान श्वास नली एवं कंठ में है। इसका मुख्य कार्य छींक और जम्भाई लाना है।

  • धनंजय - यह व्यान वायु का उप वायु है। इसका स्थान रक्त, मांस, त्वचा, अस्थि, केश, ज्ञानतंतु तथा संपूर्ण शरीर में है। इसका मुख्य कार्य शरीर का पोषण करना तथा संपूर्ण शरीर में व्याप्त रहकर कार्य करना है।


इन सभी प्राणों वह उपप्राणों को नियंत्रित करके सुचारू रूप से चलाने के लिए ही प्राणायाम किया जाता है। इन प्राणों और उपप्राणों के असंतुलन से ही अनेक व्याधियों का जन्म होता है।

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प्राणायाम में ध्यान रखने योग्य बातें (Things to keep in mind in Pranayam)

प्राणायाम का काल - प्राणायाम के लिए शीतकाल ही उत्तम समय है। वैसे प्रतिदिन प्रातः और सांयकाल ही प्राणायाम करना चाहिए। प्रातः काल पेट भी खाली रहता है जिस कारण फेफड़ों को फैलने के लिए पर्याप्त स्थान मिल जाता है। इसी प्रकार सायंकाल में शौच आदि से निवृत्त होकर प्राणायाम करें। यद्यपि सांय काल में उदर(abdomen) पूर्णतः रिक्त नहीं रहता फिर भी आमाशय(stomach) तो रिक्त ही रहता है। प्रातः काल में प्राणायाम करने से रात्रि में हुआ प्राणवायु का अभाव पूरा हो जाता है तथा दिनभर शरीर स्वस्थ रहता है और मन शांत एवं प्रसन्न रहता है। इसी प्रकार सांयकाल में प्राणायाम करने से दिन में हुआ प्राणवायु का अभाव पूर्ण हो जाता है तथा रात्रि में शरीर स्वस्थ रहता है और मन शांत एवं प्रसन्न रहता है जिससे निद्रा बहुत अच्छी आती है।

प्राणायाम का स्थान - प्राणायाम सदैव शुद्ध सात्विक और शांत स्थान पर ही करना चाहिए। इसके लिए जल का तट, उपवन, हरे भरे खेत, बगीचे अथवा अग्निहोत्र की सुगंध से सुवासित स्थान सर्वोत्तम होता है। अपने घर में प्राणायाम करना हो तो खुले स्थान पर खुली खिड़कियों के कक्ष में अथवा खुली छत पर ही प्राणायाम करना चाहिए। ऐसे स्थलों पर प्राणायाम करने से अत्यंत लाभ होता है। अपवित्र, अशुद्ध, प्रदूषण युक्त, अशांत तथा बंद कक्ष में प्राणायाम नहीं करना चाहिए। इससे हानि होती है।

बिछाने का आसन - प्राणायाम करते समय अपने नीचे कुचालक(Insulator) अर्थात सूती, ऊनी अथवा कुशा का आसन बिछाना चाहिए। इससे शरीर की ऊर्जा तरंगे भूमि में नहीं पहुँच पाती।

शरीर के द्वारों की स्वच्छता - प्राणायाम करने से पहले कंठ नासिका आदि को अच्छी प्रकार से साफ कर लेना चाहिए तथा मल, मूत्र व वमन आदि का आवेग नहीं होना चाहिए।

प्राणायाम का निषेध - ज्वर, पीड़ा ,अतिसार, खांसी आदि रोगों से पीड़ित और थके हुए व्यक्तियों को प्राणायाम नहीं करना तथा भोजन के उपरांत चार से अधिक घंटे बीत जाने पर प्राणायाम करना चाहिए।

मन की प्रसन्नता -  प्राणायाम करते समय मन प्रसन्न, शांत और एकाग्र होना चाहिए। मन को चिंता, शोक, तनाव, दु:ख आदि से मुक्त रखना चाहिए।


श्वास लेना - शीतली आदि प्राणायामों के अतिरिक्त प्राणायाम करते समय श्वास सदैव नासिका से ही लेना चाहिए। मुँह से नहीं। इससे वायु में विद्यमान विजातीय तत्व नासिका छिद्रों में ही रुक कर नष्ट हो जाते हैं।


ईश्वर का गुणगान एवं ध्यान -  प्राणायाम से पूर्व ईश्वर का गुणगान करना चाहिए अर्थात स्तुति करनी चाहिए। प्राणायाम की क्रिया प्रारंभ करने से पहले ईश्वर का ध्यान करने से मन तत्काल शांत, प्रश्न तथा परमात्मा में स्थिर हो जाता है। प्राणायाम के पश्चात भी ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।


ओम का ध्यान - प्राणायाम करते समय भी मन में निरंतर ओम का ही ध्यान करते रहना चाहिए।


शारीरिक तनाव नहीं - प्राणायाम करते समय शरीर में किसी भी प्रकार का तनाव नहीं रखना चाहिए अर्थात नेत्र, नासिका, भौहे,माथा आदि अंगों पर तनाव नहीं होना चाहिए तथा शरीर के सभी अंग शांत, सहज अवस्था में सीधे रहने चाहिए।


तीन दीर्घ श्वास - प्राणायाम की प्रत्येक क्रिया के पश्चात न्यूनतम तीन बार दीर्घ श्वास लेने और छोड़ने चाहिए। इससे प्राणायाम करने में थकान नहीं होती।


प्राणायाम की गति - प्राणायाम का प्रारंभ और अभ्यास मंद-मंद धीमी गति से सुख पूर्वक करना चाहिए। कभी भी शीघ्रता नहीं करनी चाहिए। प्राणायाम का समय धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए। बाह्य कुंभक अनिवार्य है। प्राणायाम की विभिन्न क्रियाएँ करने से पहले संपूर्ण वायु को नासिका द्वारा बाहर निकाल कर बाहर ही रोक देना चाहिए। यह क्रिया कम से कम 3 बार अवश्य करनी चाहिए।


श्वास की प्रक्रिया - श्वास को सुखपूर्वक और दीर्घ लेना चाहिए। इस प्रकार प्राण भरने से ही पूर्ण लाभ हो पाता है। शीघ्र प्राण भरने से पूर्ण लाभ नहीं हो पाता।


मन की एकाग्रता - प्राणायाम करते समय नासिकाग्र को देखते हुए नेत्र बंद कर लेने चाहिए तथा मन को भृकुटी(between the eyebrows) में एकाग्र रखना चाहिए।

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प्राणायाम में सावधानियाँ (Precautions in Pranayam)

प्राणायाम करते समय कुछ सावधानियाँ रखनी अत्यंत आवश्यक है।

भोजन कैसा हो - प्राणायाम की साधना करने वाले व्यक्ति को सदैव शुद्ध, सात्विक, पोष्टिक, रोगनाशक, स्निग्ध, सरस, अल्प और ताजा भोजन ग्रहण करना चाहिए। ऐसा भोजन करने से शरीर शीघ्र ही स्वस्थ, बलवान और सुंदर बन जाता है तथा मन में सद्गुणों का विकास होता है। सूखा-सूखा, सड़ा-बासी, तामसिक, अशुद्ध, रोगकारक भोजन कभी ग्रहण नहीं करना चाहिए। प्राणायाम के साधक को अधिक मिर्च-मसाले, तले-भुने, खट्टे, दुष्पाच्य खाद्य पदार्थों से बचना चाहिए और बोटल बंद पेय तथा डब्बा बंद  फूड्स आदि से दूर रहना चाहिए। इनसे शरीर अस्वस्थ, निर्बल, कुरूप हो जाता है तथा मन में दुर्गुण बढ़ते रहते हैं। योगाभ्यास करने वाले को सदैव शरीर को पुष्ट करने वाला सुमधुर, स्निग्ध, गौघृत, दूध, दही, मट्ठा, रसदार फल आदि सब धातुओं का पोषण करने वाला, रुचिकर तथा अपनी प्रकृति के अनुकूल ही भोजन करना चाहिए।

संयम - प्राणायाम के साधक को अपने मन तथा इंद्रियों पर संयम रखना चाहिए। इन पर संयम करने से ही प्राणायाम का पूरा लाभ प्राप्त होता है। यदि मन चंचलता और पाप वासनाओं में ही फँसा रहेगा और इन्द्रियाँ दुष्कर्म में लगी रहेगी तो प्राणायाम का कुछ भी लाभ नहीं होगा। अतः मन और इंद्रियों को परमात्मा में स्थिर करके ही प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम करते समय इधर-उधर नहीं देखना चाहिए। परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कहीं भी ध्यान नहीं लगाना चाहिए। ओम् की ध्वनि के अतिरिक्त अन्य किसी ध्वनि को सुनने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।

पूर्व तैयारी - प्राणायाम में सफलता प्राप्त करने के लिए उससे पहले की तैयारी बहुत महत्वपूर्ण है। इस तैयारी का अर्थ यह है कि शरीर में किसी प्रकार का मल, मूत्र, कफ आदि नहीं होना चाहिए। अर्थात प्राणायाम से पहले शरीर से मल-मूत्र आदि का विसर्जन हो जाना चाहिए तथा गला, नेत्र, नासिका के साथ-साथ संपूर्ण शरीर को जल स्नान द्वारा पूर्णता स्वच्छ करना चाहिए। शरीर अशुद्ध होने की दशा में प्राणायाम नहीं करना चाहिए, क्योंकि अंदर मल भरे हो और इस अवस्था में प्राणायाम करने से तो लाभ के स्थान पर हानि हो जाती है। इसलिए शरीर को अंदर-बाहर से पूर्णता शुद्ध कर लेना चाहिए।

यथा शक्ति करें - कुछ लोग किसी अप्रमाणिक पुस्तक में पढ़कर, यूट्यूब, गूगल आदि से खोज कर, अन्य व्यक्ति को प्राणायाम करते हुए देखकर, किसी के कहने से, किसी के उत्साह बढ़ाने से, बलपूर्वक श्वास को अंदर-बाहर रोकने लगते हैं अथवा अत्यधिक बल लगाकर प्राणों को अंदर लेने और बाहर फेंकने का तीव्र गति से अभ्यास करते हैं। कुछ लोग तो प्राणों को बाहर या अंदर करके नासिका को बलपूर्वक बंद करके भी बैठ जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य प्राणायाम या किसी भी क्रिया को अपनी शक्ति सामर्थ्य का विचार किए बिना ही इतने समय तक करने लगते हैं जितने समय किसी और को भी करते देखा हैं। इस प्रकार प्राणायाम करने से लाभ के स्थान पर हानि होने की संभावना रहती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने बल और सामर्थ्य के अनुसार ही प्राणायाम करना चाहिए। अर्थात जैसे ही थकान का अनुभव होने लगे उसी क्षण प्राणायाम रोक देना चाहिए तथा लंबे-लंबे और धीरे सांस लेकर शरीर को सामान्य अवस्था में लाना चाहिए।

शरीर सहज, सीधा व सम रखें - प्राणायाम करते समय सुख पूर्वक आसन में बैठकर पीठ और ग्रीवा को सीधा रखें। दोनों हाथों की हथेलियों के ऊपरी भाग को घुटनों पर तथा अंगूठे और तर्जनी उंगली के अग्रभाग को मिलाकर रखें। शरीर को न अधिक कसे और न अधिक ढीला छोड़ें अर्थात शरीर को सम अवस्था में रखें।

प्रकृति के अनुकूल - प्राणायाम की कुछ क्रियाओं से शरीर में गर्मी बढ़ती है, कुछ से शीतलता और कुछ से सामान्य तापमान रहता है। प्राणायाम के साधक को अपने शरीर की शीत या उष्ण प्रकृति को ध्यान में रखकर तथा बाहर का गर्मी या सर्दी का मौसम जानकर अभ्यास करना चाहिए। अर्थात शीतकाल में अधिक प्राणायाम किया जा सकता है यदि उष्ण प्रकृति भी है।  लेकिन यदि ग्रीष्म ऋतु में उष्ण प्रकृति की अवस्था में तीव्र गति से प्राणायाम करेंगे तो हानि हो सकती है। यदि शीत प्रकृति है तो शीतल करने वाले प्राणायाम नहीं करने चाहिए। समशीतोष्ण रखने वाले प्राणायाम किए जा सकते हैं।

बन्ध सही लगाये - प्राणायाम करते समय शरीर में लगाए जाने वाले तीन बन्धो का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है यह किसी योग्य गुरु से समझ कर करें। यहाँ पर हमने तीन बन्धों को समझाया है।


आसन कौन सा लगाये - प्राणायाम करते समय आसन का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए पहले अपना आसन सिद्ध कर लेना चाहिए। सुख पूर्वक बैठने के लिए किसी एक आसन विशेष का अभ्यास कर लेना चाहिए। जिसमें कि बिना हिले-डुले देर तक बैठ सके। पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन आदि  जिस किसी आसन में भी साधक सुख पूर्वक बैठकर प्राणायाम कर सके, उसी में करें।

श्वास छाती/फेफड़ों में भरना, पेट में नहीं - प्राणायाम करते समय वायु को केवल फेफड़ों में ही भरना चाहिए, उदर में नहीं। साँस भरने से वक्ष स्थल ही फुलना चाहिए, पेट नहीं। यदि प्राणवायु को अंदर भरते समय उदर को बाहर की और बुलाया जाएगा तो प्राणायाम के लाभ के स्थान पर बहुत हानि हो जाएगी। इसका ध्यान रखना चाहिए।

सामर्थ्य, समय व परिस्थिति का ध्यान रखें - प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं, किंतु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार के ही प्राणायाम करें। प्रत्येक मनुष्य को प्राणायाम करते समय अपनी शक्ति, अपनी आयु, शरीर, समय, रोग और परिस्थिति का गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद ही प्राणायाम करना चाहिए। कहने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को वही प्राणायाम करने चाहिए जो उसके अनुकूल अर्थात उसके लिए लाभप्रद हो। जिन प्राणायाम से व्यक्ति को कष्ट होता है वे उसे कदापि नहीं करना चाहिए। प्राणायाम की सभी क्रियाएँ सब के अनुकूल नहीं होती। यह आवश्यक नहीं है कि जो प्राणायाम एक व्यक्ति के लिए लाभकारी है वह दूसरे व्यक्ति के लिए भी लाभकारी ही हो। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपने अनुकूल प्राणायाम ही करना चाहिए।

कम से कम जिसने योग दर्शन आयुर्वेद आदि का विधिवत अध्ययन न किया हो, केवल पुस्तक में पढ़कर, किसी से सुनकर अथवा किसी व्यक्ति को करते देखकर, टीवी, यूट्यूब या अन्य स्रोत से स्वेच्छापूर्वक करने से लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। इसलिए प्राणायाम व ध्यान करने से पहले किसी सुयोग्य और साधक गुरु से ही प्राणायाम की शिक्षा-दीक्षा लेकर प्राणायाम करना चाहिए।


प्राणायाम वही है जो योग दर्शन में महर्षि पतंजलि ने वर्णित किए हैं। अन्य सभी साँस लेने की पद्धतियाँ प्राणायाम नहीं है। वह सब क्रियाएँ हैं। जैसे कपालभाति, अनुलोम-विलोम, उज्जायी आदि क्रियाओं को भी किसी योग्य गुरु से ही सीखना चाहिए।

PranayammeSavdhaniya

आयुर्वेदिक शब्दार्थ एवं परिभाषाएँ (Ayurvedic terminology )

  • दीपक - जो द्रव्य जठराग्नि को बढ़ाए जिससे भूख खुलती हैं पर पाचन शक्ति न बढ़ाए उसे दीपक कहते हैं -  जैसे सौफ। दीपन करना मानें अग्नि तेज़ करना।

  • पाचक - खाए हुए द्रव्य का पाचन तो करे पर दीपन न करें उसे पाचक कहते हैं - जैसे नागकेसर। 

  • आम - खाये हुए अन्न को आम कहते हैं और अन्ननलिका द्वारा अन्न जहाँ पहुँचता है उस अंग को आमाशय याने आम का स्थान कहा जाता है। इसी आम का पाचन होने पर रस रक्त आदि धातुएँ बनती है। 

  • ग्राही - जो दीपन और पाचन दोनों कार्य कराये उसे ग्राही कहते हैं - जैसे सोंठ। 

  • अनुलोमन - नीचे की तरफ गति करना। अपक्व मल को पका कर जो द्रव्य अधोगति द्वारा नीचे ले जाकर शरीर से बाहर कर दे उसे अनुलोमन कहते है - जैसे छोटी हरड़। 

  • विलोमन - ऊपर की ओर गति करना। वायु कुपित होकर ऊपर की ओर चढ़ता है उसे विलोमन कहते हैं।

  • विरेचक - पके या अधपके मल को पतला करके दस्तों द्वारा जो द्रव्य मल को बाहर कर दे उसे विरेचक कहते है - जैसे त्रिफला। 

  • वामक - कच्चे पित्त, कफ या खाये हुए आहार को बलपूर्वक (उल्टी द्वारा) वापिस मुख के द्वारा बाहर निकाल दे उसे वामक कहते है - जैसे मैन फल।

  • स्न्निग्ध - चिकने, सौम्य और स्न्नेहन करने वाले पदार्थ जैसे घी, तैल आदि। 

  • गुरू - भारी पदार्थ जैसे अरबी। 

  • लघु  - हलके पदार्थ जैसे मूँग। 

  • रसायन - जो द्रव्य व्याधि और बुढ़ापे को दूर रख कर शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाए और धातुओं की वृद्धि करें जैसे हरड़, आवला आदि। 

  • वाजिकरण - शरीर में बल, रज, वीर्य की वृद्धि और कामशक्ति पैदा करना । जो पदार्थ वाजिकरण करते हैं उन्हें वाजिकारक कहते हैं - जैसे असगन्ध कौंच के बीज आदि। 

  • त्रिकुट - सोंठ, पीपल, काली मिर्च। 

  • त्रिफला - हरड़, बहेड़ा, आवला।

  • चातुर्जात - नागकेसर, तेजपात, दालचीनी, इलायची। 

  • पंचकोल - सोंठ, पीपल, पीपलामूठ, चित्रक, चव्य। 

  • काढ़ा करना - द्रव्य को पानी में इतना उबाला जाए कि पानी जल कर चौथाई भाग रह जाए इसे काढ़ा कहते है। 

  • भावना देना - किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना भावना देना है। जितनी भावना देनी हो उतनी बार द्रव्य के रस में चूर्ण को गीला कर सुखाना चाहिए।

  • त्रिदोष - वात, पित्त, कफ जब सामान्य स्थिति में हो तब धातु कहे जाते हैं और कुपित होने पर इन्हें दोष कहा जाता है ।

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