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शरीर(Body)

हम सब जीवात्माओं को ईश्वर कोई न कोई शरीर साधन के रूप में देता है। जिस शरीर के अंदर रहकर हम अपना कार्य संपन्न करते हैं। यह शरीर ही सुख-दु:ख भोग का साधन है और यह मनुष्य शरीर ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है। यदि जीवात्माओं को शरीर न मिले तो वें न तो अपने कर्मों का भोग भोग सकते हैं, न ही आगे के लिए कोई नया कर्म कर सकते हैं। इसलिए कर्म करने के लिए आत्मा को शरीर की आवश्यकता होती है। बिना शरीर के तो आत्मा असहाय है, कुछ भी नहीं कर सकती, स्वयं हिल भी नहीं सकती।
शरीर तीन प्रकार से प्राप्त हैं-

  1. स्थूल शरीर 

  2. सूक्ष्म शरीर 

  3. कारण शरीर

जो अन्नमय कोश अर्थात् जो अन्न से बना है, जिसे हम देख सकते है, छू सकते है, वह स्थूल शरीर है। जो पंच तन्मात्रों, पांच ज्ञानेन्द्रियो, पांच कर्मेन्द्रियों तथा मन, बुद्धि, अंहकार का समुदाय इस स्थूल शरीर के अंदर है वह सूक्ष्म शरीर कहलाता है। तथा सबका मूल अर्थात सत्व, रज, तम, जिससे सबके शरीर बने हैं वह कारण शरीर है। सत्व,रज, तम को ही कारण शरीर कहते हैं।

तीन शरीर व पंचकोश के संक्षिप्त परिचय के लिए यहाँ क्लिक करे।

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जीवात्मा का साधन (Means of soul)

जीवात्माओं को अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कर्म करने के लिए बहुत सारे साधनों की आवश्यकता है जिससे वह शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर सके, शुद्ध कर्म कर सके और शुद्ध उपासना कर सकें। वैसे तो तीन स्तर से मनुष्य कर्म करता है। मन, वाणी व शरीर के द्वारा, किन्तु इनके पीछे बहुत सारे साधनों की आवश्यकता होती है। जिनको ऊपर तीन शरीर में बता दिया गया है।

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जन्म क्या है? (What is birth?)

"जनि प्रादुर्भावे" इस संस्कृत धातु से जन्म शब्द प्रतिपादित होता है। इसका अर्थ है प्रादुर्भाव अर्थात प्रकट होना। जन्म लेना अर्थात आत्मा का शरीर के माध्यम से प्रकट होना।

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जीवन क्या है?(What is life?)

जन्म से लेकर मृत्यु तक के बीच का समय जीवन होता है।

मृत्यु क्या है? (What is death?)

"मृत्+यू "
"यू मिश्रणामिश्रयो" से मृत्यु शब्द आता है। इसका अर्थ है तोड़ना जोड़ना। एक शरीर से छुड़ाकर दूसरे शरीर से जोड़ना। यह( मृत्यु) यात्रा का अंत नहीं है, केवल गाडी बदलने वाली बात है, ड्राईवर/चालक नहीं बदलेगा। शरीर बदलने को मृत्यु कहते हैं।

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मृत्यु निश्चित या अनिश्चित? किसकी मृत्यु कब होगी​?
(Death certain or uncertain? When will one die?)

ईश्वर के द्वारा दी गई आयु तो निश्चित है, लेकिन मनुष्य ईश्वर की दी हुई आयु को कम या अधिक करने में एक सीमा तक स्वतंत्र है।


आयु को घटाया या बढ़ाया जा सकता है, लेकिन ईश्वर की तरफ से हमको कर्मफल के आधार पर एक निश्चित ही आयु प्राप्त होती है। हम उस आयु को सावधानीपूर्वक और संयम से खानपान, आहार, निद्रा, परिश्रम आदि के द्वारा आगे भी बढ़ा सकते हैं और लापरवाही से, असावधानी से उसको जल्दी भी समाप्त कर सकते हैं। दुर्घटना आदि के द्वारा या प्राकृतिक आपदाओं में या अन्य कारणों से पूरी आयु भी हम नहीं जी पाते ऐसा भी हो सकता है। और जितनी आयु ईश्वर ने दी है सावधानीपूर्वक ईश्वर उपासक बनकर, वेदानूकूल आचरण करके उससे आगे भी उसको ले जा सकते हैं। अत: आयु अनिश्चित है। निश्चित नहीं है कि कौन व्यक्ति किस दिन, किस समय, किस स्थान पर, किसके द्वारा, कितने बजकर कितने मिनट पर मर जायेगा? ऐसा पहले से निर्धारित नहीं है। इसकी भविष्यवाणी भी नहीं की जा सकती क्योंकि अनिश्चितता है। कोई कही भी, कभी भी, किसी तरह से भी मृत्यु को प्राप्त कर सकता हैं। दुर्घटनाओं, विष से, लापरवाही आदि किसी से भी हो सकती है। प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के विधान में रहकर कर्म करने में स्वतन्त्र है।

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मृत्यु का स्वरूप (Form of death)

🌷वासांसि जीर्णानि यथा विहाय..
भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को उतारकर नए वस्त्र धारण कर लेता है ठीक उसी तरह जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़कर के आत्मा नया शरीर धारण कर लेता है। जब तक मुक्ति नहीं हो जाती तब तक अनवरत रूप से एक के बाद एक जन्म-मृत्यु, जन्म-मृत्यु होता ही रहता है। केवल मोक्ष ही इस जन्म मरण पर ब्रेक लगा सकता है।

मृत्यु से बचने का उपाय (Way to avoid death)

मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी अवश्य ही होगी। ऐसा कोई उपाय नहीं कि जन्म हो जाए और मृत्यु न  हो।  यह सारा संसार नश्वर है। यहाँ पर कुछ भी स्थिर नहीं है। यह संपूर्ण जड़ जगत क्षरणधर्मी है। यहाँ हर समय कुछ नया बनता है, कुछ पुराना टूट जाता है। यही प्रक्रिया चलती रहती है। इसलिए मृत्यु को पूरी तरह से टाला नहीं जा सकता। लेकिन ऐसा संभव है कि व्यक्ति अपनी पूर्ण आयु जो उसे ईश्वर ने दी है या उससे भी अधिक एक सीमा तक अपने जीवन को बढ़ा सकता है। उसके लिए किसी योग्य गुरु के पास वेदानुकूल आचरण या अष्टांगयोग को सीखकर उसका पालन करना चाहिए।

आहार, विहार, निद्रा, संयम, परिश्रम, यज्ञ, ध्यान आदि का अभ्यास ठीक से करना चाहिए। तथा धर्म में रूचि रखते हुए, स्वार्थ(अपने हित के लिए) व परमार्थ, सेवा व समर्पण भाव रखना चाहिए। धर्म की रक्षा करते हुए जीना चाहिए, क्योंकि "धर्मो रक्षति रक्षित:" जो धर्म की रक्षा करते हैं तो रक्षित हुआ धर्म रक्षा करने वाले की रक्षा करता है।

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