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स्वास्थ्य, स्वस्थ जीवन का आधार, सुख व सुविधा का भेद, स्वस्थ रहने के उपाय या नियम, बच्चों के (मानव) के निर्माण के चार स्थान, शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, बौद्धिक स्वास्थ्य, आध्यात्मिक स्वास्थ्य, Health, physical health, mental health, intellectual health, spiritual health, Foundation of healthy living, Difference between comfort and convenience, Ways to stay healthy, (Four places of creation of children (human)

स्वास्थ्य (Health)

स्वस्थ कौन है? यह जानने से पहले यह प्रश्न उठता है कि "स्वस्थ" कहते किसको है?

"स्वस्थ = स्व+स्थ" अर्थात अपने स्वरूप में स्थित हो जाना।

इसका उत्तर महर्षि कपिल मुनि सांख्य दर्शन के द्वितीय अध्याय के 34 वे सूत्र में इस प्रकार दे रहे हैं।

🌷तन्निवृत्तौ उपशान्तोपराग: स्वस्थ:। (सांख्य २/३४)

अर्थात जब इन्द्रियों की वृत्तियाँ भौतिक विषयों से हट जाती है, तब उस राग-द्वेष रहित अवस्था को स्वस्थ कहतें है। उसके बाद चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन की भावना जो अविद्या के कारण रहती है वह न रहकर चेतन में चेतन की भावना विवेक पूर्वक रहना ही आत्मा का स्वरूप में अवस्थित होना कहलाता है। अर्थात स्वयं में जो स्थित है, वही 'स्वस्थ' है। ऐसा महर्षि कपिल कह रहे हैं। यह एक बहुत ऊंची स्थिति है और बहुत महान परिभाषा है जो कि समाधि के पश्चात आत्मसाक्षात्कार होने पर प्राप्त होती है जब समस्त विषय संबंधी इंद्रियवृत्तियां हट जाती है।


इस आधार पर यदि किसी को स्वस्थ माने तो वह तो कोई योगी, ऋषि हो सकता है। अन्य कोई भी इस संसार में स्वस्थ नहीं है।

 

आयुर्वेद के सबसे बड़े ग्रंथ चरक संहिंता के अनुसार स्वस्थ कौन?
आयुर्वेद के ऋषि प्रतीकात्मक रूप से पक्षियों के द्वारा बोले जा रहे इस प्रश्न का उत्तर देते हैं

🌷हितभुक् मितभुक् ऋतभुक्
जो हितकारी भोजन करता है अर्थात् उचित मात्रा में, सात्त्विक, पौष्टिक, अपनी व भोजन की प्रकृति को ध्यान में रखकर, परिश्रम करके, सत्य की कमाई से ग्रहण करता है वह रोगी नहीं होता।

आयुर्वेद के महर्षि चरक ने इसे इस प्रकार से कहा- 

🌷हिताहारा मिताहारा अल्पाहारा च ये जना:। न च वैद्या:चिकित्सन्ति: आत्मनस्थे चिकित्सका:।‌

अर्थात जो लोग हितकारी, सत्य परिश्रम से युक्त, भूख से कम मात्रा में भोजन करते हैं, उन्हें किसी चिकित्सक की आवश्यकता नहीं। वह अपने आप में स्वयं ही चिकित्सक हैं।

SwasthJivankaAadhar

स्वस्थ जीवन का आधार (Foundation of healthy living)

सभी मनुष्य का स्वास्थ्य चार स्तरों पर देखा जाता है।

  1. शारीरिक स्वास्थ्य

  2. मानसिक स्वास्थ्य

  3. बौद्धिक स्वास्थ्य

  4. आध्यात्मिक स्वास्थ्य

कहीं-कहीं पर इसे दो तरह से वर्गीकृत/वर्णित किया गया है।

  1. शारीरिक स्वास्थ्य

  2. मानसिक स्वास्थ्य

यदि कोई शरीर से स्वस्थ रहना चाहता है तो उसको यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि हमारे स्वस्थ शरीर का आधार स्वस्थ मन, स्वस्थ बुद्धि व स्वस्थ इंद्रियाँ है।
अर्थात स्थूल शरीर का आधार सूक्ष्म शरीर है। यदि किसी को स्वस्थ शरीर चाहिए तो प्रथम उसे अपने मन को, अपनी बुद्धि को, अपनी इंद्रियों को स्वस्थ व पवित्र बनाना होगा। ऐसा किए बिना वह शरीर से स्वस्थ नहीं रह सकता।
सभी रोगों का मूल कारण प्रज्ञा अपराध है अर्थात मन के अंदर उत्पन्न होने वाले अनियंत्रित विचार, चंचलता, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, मद-मत्सर आदि विकारों को हटाना होगा तब शरीर स्वस्थ हो सकेगा।

TinSharirVPanchKosh

तीन शरीर व पंचकोश का संक्षिप्त परिचय (Brief introduction of three bodies and Panchkosha)

स्वयं को स्वस्थ बनाने से पहले यह जान लेना भी अत्यंत आवश्यक है कि हम वास्तव में किन-किन वस्तुओं का संग्रह या समुच्चय है। अपने अस्तित्व के साथ कौन-कौन सी चीजें जुड़ी हुई है जिनका स्वस्थ रहना अत्यंत आवश्यक है। शरीर केवल बाहर से दिखने वाला चमड़ी और मांस का पिंड ही नहीं, इसके साथ बहुत कुछ जुड़ा हुआ है। आइए आज हम इसी पर बात करते हैं।


शरीर वह है जिसके अंदर इंद्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के साथ आत्मा रहता है। शरीर तीन प्रकार के होते हैं। विश्व के सभी लोग चाहे जो समझते हो, परंतु आज भी यह संसार एक पदार्थ है। हम उसका परीक्षण, निरीक्षण, अवलोकन कर सकते हैं। अतः हमें स्वयं ही स्वयं के वैज्ञानिक बनकर अपने शरीर और उसमें स्थित अदृश्य शरीर का एक प्रयोगशाला की तरह निरीक्षण करना चाहिए। हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसको ही प्रयोगशाला बनाया और पूर्ण रूप से इसका निरीक्षण किया उसके बाद उन्होंने ध्यान समाधि में इस शरीर को तीन भागों में विभक्त किया।


1. स्थूल शरीर- यह शरीर स्थूल इंद्रियों से या कहें कि इंद्रियों के गोलक से युक्त है। जो वात, पित्त, कफ के कारण बनता है। वात, पित्त, कफ यह धातुएँ कहलाती है। जब इनमें विषमता हो जाए तब शरीर रोगी हो जाता है। क्योंकि इनमें विषमता होती ही रहती है, इसलिए इन्हें धातु न कहकर दोष कह दिया जाता है। इसके अलावा शरीर के अंदर सात धातुएँ है। यही स्थूल शरीर बनता-बिगड़ता है, उत्पन्न होता है, नष्ट होता है। यह स्वस्थ हो तो आत्मा सुखी रहता है और रोगी हो तो जीव दु:खी हो जाता है। इसके बनने-बिगड़ने के नियम ईश्वरीय है।
यह स्थूल शरीर पंचमहाभूत अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से निर्मित होता है। इन्हीं पंचमहाभूतों के आधार पर यह चलता है या बंद पड़ जाता है। यह शरीर जड़ एवं दृश्य है। इसके विभिन्न अवयव हैं, स्थूल इंद्रिया है। यह शरीर हमें माता-पिता की ओर से प्राप्त होता है। यदि शरीर स्वस्थ या अस्वस्थ हो जाता है तो उस तरह से आत्मा को सुख एवं दु:ख प्राप्त होता रहता है। इसका पालन-पोषण प्रकृति के पदार्थों से होता है। हम जो भी खाते-पीते हैं, उसका परिणाम हमारे इस स्थूल शरीर और इसकी अन्य इंद्रियों पर होता है। अतः इन पदार्थों पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। सप्त धातुओं के साथ ही शरीर में अनेक प्रकार के मल भी होते हैं, अग्नि भी होती है। यह सब कुछ दिखाई देने वाले हैं। इसमें पाचन तंत्र, श्वास प्रणाली, रक्त संचरण प्रणाली, आदि व्यवस्थाएँ काम करती है।

2. सूक्ष्म शरीर- यह शरीर दिखाई नहीं देता। इसी कारण से इसे सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। स्वप्न अवस्था इसका प्रमाण है। या कहे कि स्वप्न में इसका प्रत्यक्ष सभी को होता है। जागृत अवस्था में भी आँखें बंद करके मन को अंतर्मुख और एकाग्र कीजिए व अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री आदि को याद कीजिए। आपके सम्मुख उनका चित्र, उनका रूप प्रकट हो जाएगा। मन एकाग्र करके अपने घर, विद्यालय अथवा बचपन के किसी घटना को याद कीजिए। खेत-खलियान, बाग-बगीचे, नदियाँ, वृक्ष आदि जो भी याद करेंगे, जिस चीज़ की भी आप अभिलाषा करेंगे वह सारी चीज़ें आपको दिखने लगेगी। किंतु देखने के लिए मन की एकाग्रता और अंतर्मुखी प्रवृत्ति होना आवश्यक है। सूक्ष्म शरीर का यह प्रत्यक्ष जागृत अवस्था में भी होता है। स्वप्न अवस्था में भी यही होता है। दिखाई ना देने वाला सूक्ष्म शरीर भी जड़ है अर्थात निर्जीव प्रकृति के तत्वों से बना है। इस सूक्ष्म शरीर में ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां है। तथा मन, बुद्धि, चित्त है। यह तीनों तत्व हवाई जहाज के ब्लॉक बॉक्स की तरह है जिसमें आज से पहले अनेक शरीर बने और आगे भी अनेक शरीर बनेंगे वह सारे स्मृतियो के रूप में विद्यमान है और रहेंगे।
सूक्ष्म शरीर माता-पिता से नहीं मिलता। यह मृत्यु के बाद भी आत्मा के साथ चला जाता है और जन्म के समय आत्मा के साथ ही आता है। सत्व रजस और तमस इन 3 गुणों के योग से यह बनता है। इसे ही अंतःकरण कहते हैं। करण का अर्थ साधन है। यह भीतरी साधन है। इसी में षड् रिपु(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) भी रहते हैं। यह शरीर भी अस्वस्थ होता है। इसके स्वस्थ या अस्वस्थ होने से आत्मा को सुख या दु:ख होता है। यह सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ होता है। जब तक आत्मा मुक्त नहीं हो जाती, तब तक यह सूक्ष्म शरीर आत्मा से नहीं छूट सकता।
स्थूल शरीर तो बाद में रोगी होता है, पहले सूक्ष्म शरीर विकारी होता है। इसलिए स्थूल शरीर के स्वास्थ्य का आधार स्वस्थ सूक्ष्म शरीर है। पहले सूक्ष्म शरीर को स्वस्थ करना चाहिए। पहले आधार(सूक्ष्म) को स्वस्थ रखना चाहिए उसके बाद आधेय(स्थूल) स्वस्थ रहता है।

3. कारण शरीर- शरीर में स्थित कारण शरीर भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह सूक्ष्म रूप से बना होता है। प्रकृति की साम्य अवस्था अर्थात संसार के सबसे छोटे मूल कणों की समान अवस्था में भी यह रहता है। यह हमेशा जीवात्मा के साथ रहता है। यह जड़ प्रकृति का ही सूक्ष्मतम रूप है। स्पष्ट है सत्व, रज, तम को ही कारण शरीर कहते हैं। गहरी नींद की अवस्था या सुषुप्ति अवस्था में यह अनुभव होता है। आत्मा कहती है- 'जागो' यह आदेश वह कारण शरीर के द्वारा ही देती है। आत्मा कारण शरीर में स्थित हैं।


इन सूक्ष्म एवं कारण शरीर के साथ आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में जाती है।

पंचकोश -
हमारे शरीर में 5 कोश होते हैं।

  1. अन्नमय कोश

  2. प्राणमय कोश

  3. मनोमय कोश

  4. विज्ञानमय कोश

  5. आनंदमय कोश

1. अन्नमय कोश - जिसका निर्वाह अन्न पर चलता है, ऐसे स्थूल शरीर को अन्नमय कोश कहते हैं। यह दृश्य और स्थूल है। यह कोश स्थूल शरीर का धन है एवं द्रव्य अंश है।

2. प्राणमय कोश - यह प्राण एवं वायु पर आश्रित होता है, इसलिए यह भी बनता है व बिगड़ता है। स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर और आत्मा को जोड़ने वाला तत्व प्राण कहलाता है।
प्राणों के होने पर जीवन है, अन्यथा मृत्यु अटल है। प्राण भी परमात्मा की ओर से ही प्राप्त होते हैं। जिसकी प्राणशक्ति सबल प्रबल है वही शक्तिशाली है। मन, इंद्रिय, बुद्धि आदि को शुद्ध रखना, इनसे अच्छे कार्य करना और संयमित बनाए रखना, यह सब कार्य प्राणों के कारण से ही संभव हो पाते हैं। प्राण वश में हो जाने से अन्य सभी वश में हो जाते हैं। प्राणायाम के माध्यम से हम इसका अनुभव कर सकते हैं। मुख्य पांच प्राण और पांच उपप्राण कुल मिलाकर 10 प्राण हैं। यह दसों प्राण जड़, अदृश्य और प्रकाश में आया है। ईश्वर के बाद प्राण ही इस जगत में जीवों के लिए सबसे बड़ा देवता है।  जिसके न रहने पर, जिसके बिगड़ जाने पर सब कुछ बिगड़ जाता है। सब कुछ चला जाता है। इसलिए प्राणों की रक्षा सर्वप्रथम की जाती है।


3. मनोमय कोश - जिसमें सदैव संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं। ऐसे मन, बुद्धि के संयोग को मनोमय कोश कहते हैं। छः शत्रु - षडरिपु (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर), भय, शंका, अंहकार, आलस्य, प्रमाद आदि दोष भी इसमें होते हैं। यह भी जड़ तथा अदृश्य है। इनका भी अनुभव सभी को होता है। इसमें भाव-आवेग बहुत अधिक रहता है।


4. विज्ञानमय कोश - विज्ञानमय कोश संकल्प-विकल्पों से परे है। बुद्धि द्वारा सूक्ष्म रूपों को पहचानना तथा पदार्थों का प्रत्यक्ष करना इसके अंतर्गत आता है। हर पदार्थ की सच्चाई की अनुभूति इसी के द्वारा होती है। हर पदार्थ के विज्ञान को जाना जाता है। सूक्ष्म बुद्धि कार्य करती है, जब हम अंतर्मुखी प्रवृत्ति से मन की एकाग्रता बढ़ाते हैं, सत्य तक पहुँच जाते हैं, तभी हमें विशेष ज्ञान प्राप्त होता है। यह विज्ञानमय कोश आत्मा और परमात्मा के अधिक निकट हैं, क्योंकि यह अंधकार में पड़ी हुई वस्तु को "दीपक" के द्वारा दिखाने के समान है।


5. आनंदमय कोश - जब हम आनंदमय कोश के अंदर प्रवेश करते हैं तो हमें आनंद की प्राप्ति होती है। इस कोश में आत्मा और ईश्वर यह दो पदार्थ ही होते हैं। चेतन, महा चेतन में मिल जाता है। एक सूक्ष्म, अणु परिमाण आत्मा और दूसरा सर्वव्यापी चेतन परमात्मा, यह दोनों सनातन है। लोगों ने दोनों को एक ही समझा है। इन दोनों में से एक साधक है तो दूसरा साध्य है। एक आनंद दाता है तो दूसरा आनंद का भूखा है। एक सर्वज्ञ है तो दूसरा अल्पज्ञ है। एक, एक देसी है तो दूसरा सर्वव्यापी है। एक जन्म लेकर शरीर धारण करता है तो दूसरा अजन्मा है। एक कर्म करने वाला सुख-दु:ख भोगने वाला है, दूसरा कर्म फल की व्यवस्था करने वाला और सुख दु:ख न भोगने वाला है। इन दोनों को निकट लाने का माध्यम आनंदमय कोश बनता है।

मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोककर जब हम अंतर्मुखी होते हैं तब इन सभी कोशो का प्रत्यक्ष करते हैं। अन्नमय कोश को छोड़कर बाकी सारे कोश अदृश्य हैं। गहरी निद्रा में भी हम इन सभी कोशो को लांग जाते हैं। अंतर्मुख होकर जब एक के बाद एक इन कोशो को पार करते जाएंगे तब आनंदमय कोश में प्रवेश करके सर्वाधिक आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकेंगे। ऐसा आनंद, ऐसा विशेष सुख जो किसी भी भौतिक पदार्थ में नहीं है। केवल इसी आनंद की प्राप्ति के लिए ही जीवात्मा भूखा है। इस आनंदमय कोश में जहाँ जीवात्मा है वही परमात्मा भी है। एक चेतन शक्ति दूसरी महा चेतन शक्ति से साक्षात हो जाती है। ज्ञानमय तत्व आनंदमय तत्व के निकट जाता है और आनंद प्राप्त कर लेता है। परमात्मा के निकट प्रयत्न पूर्वक और ध्यान पूर्वक रीति से जाने पर उस आनंद की प्राप्ति होती है। गहरी निद्रा में भी यह आनंद प्राप्त होता है, किंतु ज्ञान के अभाव में उस आनंद की अनुभूति वहाँ पर जीवात्मा को नहीं होती। यह ऐसे ही है जैसे किसी ने अपने घर के नीचे जमीन में बहुत सारी धनसंपदा गाड़ रखी थी और उसकी विस्मृति हो गई तो वह उस भूले हुए खजाने को न निकाल पाने के कारण दरिद्र बना बैठा है, आनंद से वंचित है। किसी दूसरे व्यक्ति ने हमारी जेब में पैसे रख दिए हो और हमें उसकी जानकारी नहीं हो और हम उनको लेकर के भ्रमित हो रहे हैं। जेब में पैसे हैं मालूम नहीं है। ऐसे ही वह आनंद का स्वामी निकटतम होने पर भी विधिवत उसकी उपासना न कर पाने के कारण उस से वंचित रह जाते हैं। ईश्वर का प्रत्यक्ष इन्हीं कोशो में होना है। यहीं पर अनुभूति होनी है। परमात्मा भीतर से सदैव आत्मा को अच्छी प्रेरणा देता है और 'यह मत करो' ऐसा भी कहता है। इतना ही नहीं वह अंदर से यम-नियम के विरुद्ध कार्य के दौरान भय, शंका, लज्जा भी उत्पन्न करता है। और अच्छे कार्यों के लिए निर्भयता, आनंद, उत्साह, शांति, संतोष, तृप्ति भी अंदर से ही देता है। आगे आत्मा, मन एवं इंद्रियों को आदेश देता है। जब कभी मुश्किल समय आता है तो उसका उत्तर भी, समाधान भी अत्यंत आवश्यक होता है और तब हम अंतर्मुख होकर चिंतन करते हैं। जब एकाग्र मन से चिंतन करते हैं, तब भीतर से ही समाधान निकल कर आता है। इसी चिंतन के माध्यम से ऋषियों ने समाधि अवस्था में वेद मंत्रों के अर्थ भी परमात्मा से जान लिए थे।

SukhSuvidhakaBhed

सुख व सुविधा का भेद (Difference between pleasure and convenience)

सुख व सुविधा मूलतः यह अंतर है कि सुविधा जीवन को आसान बना सकती है यदि बुद्धि पूर्वक सुविधाओं का प्रयोग किया जाए तो। लेकिन सुविधाओं से सुख ही मिलेगा यह आवश्यक नहीं है। कई बार सुविधाओं से दु:ख अधिक मिल जाता है। इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि सुविधाओं से तात्कालिक सुख और दीर्घकालिक दु:ख भी मिलता है। संसार के सभी भौतिक सुख, दु:ख मिश्रित ही होते हैं। यह नहीं कहा जा रहा की सांसारिक सुख बिल्कुल भी नहीं लेने चाहिए या उनसे घृणा करनी चाहिए। यहाँ पर तात्पर्य है कि हम सभी भौतिक सुख को लेते हुए भी उनमे आसक्ति न रखें। "तेन त्यक्तेन भुंजीथा.." की भावना से हम संसार के साधनों का उपभोग करें।

SwasthRahnekeUpai

स्वस्थ रहने के उपाय या नियम (Ways to stay healthy)

  1. प्रतिदिन ईश्वर का ध्यान करना।

  2. प्रतिदिन योग व्यायाम करना।

  3. प्रतिदिन धूप का सेवन करना।

  4. प्रतिदिन शुद्धि या यज्ञ करना।

  5. प्रतिदिन किसी पशु, पक्षी या निराश्रित को भोजन का अंश देना।

  6. सात्विक एवं संतुलित भोजन करना।

  7. धैर्य एवं आत्मविश्वास जागृत रखना।

  8. सकारात्मक, पुरुषार्थी एवं उत्साही जनों को मित्र बनाना।

  9. अपने से बड़ों का, अपने माता-पिता अभिभावकों का, गुरुजनों का आदर करना।

  10. उचित विश्राम करना।

  11. संयम/ब्रह्मचर्य का पालन करना।

  12. अष्टांग योग का पालन करना।

इन सभी उपायों को करने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है और यदि उसको कोई अस्वस्थता हो तो इन नियमों का पालन करने से वह धीरे धीरे स्वस्थ होने लगता है।

ManavNirmankeSthan

बच्चों के (मानव) के निर्माण के चार स्थान (Four places of creation of children (human))

गर्भ - मनुष्य का निर्माण उस समय शुरू हो जाता है जब वह माँ के गर्भ में आता है। वह जीवन का प्रथम स्थान उसके भविष्य को सबसे अधिक प्रभावित करता है। गर्भ के दौरान माँ का आहार, विहार, विचार, व्यवहार, संग, आचरण, स्वाध्याय, संध्या आदि का प्रभाव बालक पर न्यून या अधिक होता ही है।

गोत्र - यह बालक निर्माण का दूसरा चरण है। गोत्र अर्थात गोद। जब बालक माँ की गोद में होता है तब माँ उसकी प्रथम गुरु होती है। जो उसे सिखाना शुरू करती है। वहाँ से उसको स्वास्थ्य, संस्कार, भाषा, दर्शन आदि का ज्ञान होने लगता है। गोद में ही बालक माँ से अच्छी-अच्छी कविताएँ, कथा-कहानियाँ, श्लोकों, मंत्र, लोरियों के माध्यम से सुनने लगता हैं। जिससे उसकी कल्पनाशीलता बढ़ती है। उसके मन मस्तिष्क का विकास होता है।

गृह - यह मानव निर्माण का तीसरा चरण है। जब बालक माँ की गोद से उतरकर भूमि पर खेलने लगता है। घर में, आंगन में टहलने लगता है। तब वह माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, चाचा-चाची आदि के व्यवहार को देखकर के सीखने लगता है। उस समय बालक के मन पर सबसे बड़ा प्रभाव पड़ता है। वह जैसा देखता है वैसा ही करने लगता है। अतः छोटा बच्चा यदि पास में टहल रहा है तो भी वह यह देख सुन रहा है। इसे ध्यान में रखकर ही प्राचीन समय में घरों में कोप भवन बनाये जाते थे ताकि जब किसी बड़े व्यक्ति को क्रोध आये तो बच्चों के सामने गलत प्रभाव न जाये।

गुरूकुल - मनुष्य जीवन का यह चौथा चरण है जब वह माता-पिता से दूर, घर से दूर विद्या अध्ययन के लिए जाता है तो वहाँ पर आचार्य बालक को गायत्री मंत्र के अर्थ के साथ जप व ईश्वर उपासना करना शिखाकर उसका यज्ञोपवीत संस्कार करते हैं। निरंतर कई वर्षों तक वेद शास्त्रों को पढ़कर जब वह स्नातक हो जाता है तब उसका दूसरा जन्म कहलाता है। तब वह एक श्रेष्ठ मानव बनता है।

 

इस प्रकार मानव के निर्माण में इन चार स्तरों पर माता-पिता व आचार्य को बुद्धि पूर्वक, आचरण पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है, तब एक मानव का निर्माण होता है।

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