ईश्वर (God)
ईश्वर सच्चिदानंदस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, और सृष्टिकर्ता है।
जिसका नाम "ओ३म्" है।
वैदिक धर्म से अन्य संसार के सभी आस्तिक अर्थात ईश्वर में विश्वास करने वाले संप्रदायों ने अपने-अपने तथाकथित सांप्रदायिक ग्रंथों में ईश्वर के स्वरूप का वर्णन किया है, जो वेद विरुद्ध, सृष्टि क्रम के विरुद्ध तथा बुद्धि, तर्क और विज्ञान विरुद्ध है। किसी में भी एकरूपता नहीं है। इसका कारण यह है कि सांप्रदायिक लोगों ने ईश्वर का विवेचन तर्क के आधार पर नहीं किया और कल्पना का सहारा लिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि जब कोई श्रद्धालु जिज्ञासु व्यक्ति इन मत मतांतरो द्वारा बताए हुए ईश्वर के स्वरूप का अध्ययन करता है, तो वह यह निर्णय नहीं कर पाता कि किस मत/पंथ का ईश्वर वास्तविक है और कौन सा मिथ्या? कोई ईश्वर को एक कहता है, तो कोई अनेक! कोई उसे सर्वव्यापी मानता है, तो कोई उसे एक स्थान, देश विशेष में स्थित मानता है। किसी ने उसे निराकार, तो किसी ने साकार रूप में प्रस्तुत किया। किसी का ईश्वर सगुण है, तो किसी का निर्गुण। एक साधारण बुद्धि का व्यक्ति कभी निर्णय नहीं कर पाता कि किसका ईश्वर सच्चा है और किसका झूठा ?
लेकिन वेद के आधार पर महर्षि दयानंद ने ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का जो वर्णन किया है वह किसी को अस्वीकार्य हो ही नहीं सकता। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। ईश्वर पूर्ण हैं, तो उसका ज्ञान भी पूर्ण है। उसके ज्ञान वेद पर आधारित ईश्वर का स्वरूप निश्चित ही सत्य है, वास्तविक है। इसमें संदेह नहीं हो सकता। महर्षि दयानंद ने ईश्वर का स्वरूप प्रस्तुत करने के लिए ईश्वर के जिन गुणों का वर्णन किया और जिस क्रम में प्रस्तुत किया वह बहुत विलक्षण है। वेद के अनुसार महर्षि दयानंद द्वारा ईश्वर के कुछ गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप को विस्तार से देखने के लिए यहाँ क्लिक करें।
ईश्वर होने के प्रमाण (Proof of existence of God)
इस ब्रह्मांड में ईश्वर के होने के अनंत प्रमाण है, परंतु ईश्वर न होने का एक भी प्रमाण नहीं है।
ईश्वर है उसका क्या प्रमाण है? वैसे तो प्रमाण माँगने से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि प्रमाण कितने होते हैं, लेकिन वह विषय आगे रखेंगे। इस पिंड और ब्रह्मांड में ईश्वर के होने के प्रमाण क्या है? यह देख लीजिए।
यह सारा जगत ईश्वर की ही व्याख्या कर रहा है। यह संसार बना है, इसी से यह सिद्ध होता है कि कोई बनाने वाला है क्योंकि यह सर्वतंत्र सिद्धांत है, सर्वमान्य सिद्धांत है कि कोई भी चीज़ बिना बनाये नहीं बनती। विज्ञान की भी यही मान्यता है कि बिना चेतन कर्ता के क्रिया नहीं हो सकती ओर बिना क्रिया के कार्य नहीं हो सकता।
इस सारे संसार में क्रिया हो रही है, कार्य हो रहा है। इसी से यह सिद्ध है कि कोई कर्ता है, चेतन है, करने वाला है। बिना कर्ता के कार्य हो नहीं सकता, बिना बनाने वाले के कुछ बन नहीं सकता। बिना निर्माता के निर्माण नहीं होता, बिना रचनाकार के रचना हो नहीं सकती, बिना विधाता के विधान नहीं हो सकता। बिना व्यवस्थापक के व्यवस्था नहीं हो सकती, बिना संचालक के संचालन नहीं हो सकता, बिना किसी कवि के काव्य नहीं लिखा जाता, बिना रक्षक के रक्षा नहीं हो जाती, कोई न कोई शक्तिमान है जो चेतन है जो इस संसार को चला रहा है, व्यवस्थित चला रहा है। इसलिए यदि हम उस सर्वशक्तिमान को नहीं भी जानते तो भी उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। यदि सम्पूर्ण विश्व के सभी मनुष्य ईश्वर को नकार दे और कहे कि ईश्वर नहीं है तो भी ईश्वर का अस्तित्व समाप्त नहीं हो सकता। जिसको हम नहीं जानते वह नहीं है यह कोई तर्क नहीं होता।
जब-जब घर में आपसे कोई पूछता है कि खाना किसने बनाया तो आप कहते हैं खाना माँ ने बनाया, बहन ने बनाया, रीना ने बनाया, मनीषा ने बनाया या बेटी ने या पाचक ने बनाया। जब कोई पूछता है यह घर किसने बनाया, यह गाड़ी किसने बनाई तो आप कहते हैं यह पिताजी ने बनाया, यह घर दादाजी ने बनाया था। जब कोई कहता है यह घड़ा किसने बनाया तो आप कहते हैं कुम्हार ने बनाया। जब आपसे कोई पूछता है यह घड़ी किसने बनाई तो आप कहते हैं यह अमुक कंपनी ने बनाई, यह पंखा, ये वस्त्र, यह गाड़ी, यह सब कुछ किसने बनाया? किसी न किसी ने तो बनाया ही है भले ही हम बनाने वाले को नहीं जानते। देखा नहीं। तो भी किसी ने तो बनाया ही है।
इसी तरह कोई आपसे पूछे सूर्य किसने बनाया? पृथ्वी किसने बनाई? चंद्रमा नक्षत्र किसने बनाए? एक चींटी से लेकर हाथी तक सबके शरीर किसने बनाए? यह जल, थल, सागर, मरुस्थल, पहाड़, झरने, नदियाँ यह सब किसने बनाए? वृक्ष किसने बनाए?
यह तो आपने नहीं बनाए। यह धरती के किसी भी व्यक्ति ने नहीं बनाए तो फिर बनाने वाला कोई नहीं?
नहीं!
बनाने वाला है। क्योंकि जो चीज़ हमने नहीं बनाई, हम सब पृथ्वी वासियों ने नहीं बनाई तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह किसी ने भी नहीं बनाई। हमारी शक्ति सामर्थ नहीं है। जिसने बनाई वह सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है सर्वव्यापी चेतन है। उसी को ईश्वर कहते हैं।
कुछ लोग कहते हैं यह दुनिया अपने आप बन गई।
नहीं! अपने आप कैसे बन गई? अपने आप रोटी नहीं बनती, अपने आप वस्त्र नहीं बन जाता, घड़ी नहीं बनती, गाड़ी नहीं बनती, घर नहीं बनता, घड़ा नहीं बनता। अपने आप कुछ भी नहीं बनता, बनाने से बनता है।
संयोग से बन गई? एक्सीडेंटल इंसिडेंटल? ऐसा तो संभव नहीं। यदि कोई कहे यह दुनिया संयोग से बन गई तो संयोग करने वाला कोई चेतन होना चाहिए।
यदि कोई कहे कि संयोग अपने आप होता है, तो आप एक घड़ी के सारे कलपुर्जे निकालकर अलग-अलग कर लीजिए और उन सभी पुर्जो को एक डब्बे में डाल कर ढक्कन लगा दीजिए फिर उसको हिलाइए उसको हिलाते-हिलाते वर्षों तक, हजारों वर्षों तक हिलाइए क्या संयोग से अंदर घड़ी बन जाएगी? घड़ी के पुर्जे अपने आप व्यवस्थित लग जाएँगे और घड़ी चालू हो जाएगी? हजारों साल घुमाते रहिए, लाखों करोड़ों वर्षों तक, अनंत काल तक उसको घुमाते रहिए,वह कभी घड़ी बनेगी नहीं, चालू तो कैसे होगी! क्योंकि संयोग में नियम नहीं होता और घड़ी नियम से बनती है। इसलिए कभी भी घड़ी नहीं बन सकेगी, लेकिन यह सारी सृष्टि नियम से चल रही है। दिन-रात बन रहे हैं। चींटी से लेकर हाथी तक के शरीर बन रहे हैं, सबके भोजन की व्यवस्था हो रही है, पूरा चक्र चल रहा है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, आकाश सब वस्तुओं की, पदार्थों की पूर्ति कोई कर रहा है। इससे पता चल रहा है कि सब कुछ व्यवस्थित है। नियम में है। नियम अपने आप नहीं बन जाते, नियमों को बनाने वाला नियामक होता है। कोई कहता है कि केवल नियम ही है नियामक नहीं है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ईश्वर दिखाई क्यों नहीं देता? संसार में ईश्वर है? या नहीं!
किंतू दिखाई न देने के कई कारण होते हैं।
जैसे अति दूर होना। जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता। जैसे अति समीप होना। अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे आँख की लाली या आँख का सुरमा आँख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा, मन, बुद्धि, परमाणु, भूख, प्यास, सुख-दु:ख, ईर्ष्या, द्वेष आदि।
ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती।
तो यह बात तर्क पर सत्य नहीं उतरती कि जो चीज दिखाई नहीं देती वो नहीं होती। बुद्धि भी इसे स्वीकार नहीं कर सकती। यह बात युक्ति, बुद्धि, तर्क, प्रमाण सब के विरुद्ध है, क्योंकि रूलर के बिना रूल्स नहीं हो सकते। एक घर में भी बिना बनाए नियम नहीं बनते। फिर इस पूरे समस्त जगत में कैसे नियम अपने आप बन गए? नियम बनाने वाला जड़ प्रकृति का कोई हिस्सा नहीं हो सकता। वह कोई चेतन है। उसी को हम ईश्वर, परमात्मा आदि नामों से पुकारते हैं। वेदों में उसका नाम ओ३म् है। वही ओ३म् जो सारे संसार का स्वामी है। उसके द्वारा यह सब संसार बना है, उसी के द्वारा रक्षा हो रही है और वही प्रलय करने वाला है। क्योंकि बिना निमित्त कारण, बिना चेतन कर्ता के कुछ भी नहीं बनता। जड़ जगत निर्जीव है। निर्जीव चीजें स्वयं को बुद्धिपूर्वक व्यवस्थित नहीं बना सकती।
ईश्वर का स्वरूप (Form of God)
वेद के अनुसार महर्षि दयानंद द्वारा ईश्वर के कुछ गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप को यहाँ देखते हैं-
सच्चिदानंदस्वरूप - यह 3 शब्दों से मिलकर बना है। सत्, चित् व आनंद। इन तीनों का अर्थ भी भिन्न-भिन्न लिखते हैं।
सत्- (अस भुवि) इस धातु से सत् शब्द सिद्ध होता है। "यदस्ति त्रिषु कालेषु न बाध्यते तत् सद्ब्रह्म" जो सदा वर्तमान अर्थात् भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालों में जिसका बाध न हो, अर्थात जो तीनों कालों में अबाधित हो उस परमेश्वर को सत् कहते हैं। वह सदा विद्यमान हैं। उसका नाश कभी नहीं हो सकता। इसलिए उसे सत् कहते हैं। जो तीनों कालों में विद्यमान नहीं है, उन्हें ईश्वर नहीं कहा जा सकता। श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि महापुरुषों को भी तीनों कालों में विद्यमान न रहने के कारण ईश्वर नहीं कहा जा सकता, वे शरीर धारण किये अब नहीं है, लेकिन ईश्वर अब भी है, तब भी था और सदा रहता है।
चित्- जो चेतन स्वरूप है सब जीवो को चिताने और सत्य का जानने वाला, जनाने वाला है। इसलिए उस परमात्मा का नाम चित् है। ईश्वर जीवात्मा को सत्य का बोध किस तरह कराता है? इस संबंध में महर्षि ने लिखा है कि पाप आचरण की इच्छा के समय भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे काम को करने में निर्भयता, निशंकता, आनंद, उत्साह उत्पन्न करके ईश्वर जीवात्मा को सत्य का बोध हर समय कराता है।
आनंद- जिसमें सब मुक्त जीव आनंद को प्राप्त होते और जो सब धर्मात्मा जीवो को आनंद युक्त करता है। इससे ईश्वर का नाम आनंद है।
इन 3 शब्दों के विशेषण होने से परमेश्वर को सच्चिदानंद स्वरूप कहते हैं अर्थात् सत् स्वरूप होने से सत्, चित् स्वरूप होने से चित् और आनंद स्वरूप होने से आनंद।
निराकार - जिसका कोई भी आकार नहीं, और जो न कभी शरीर धारण करता है। इसलिए परमेश्वर का नाम निराकार है।
सर्वशक्तिमान - "सर्वा: शक्तयो विद्यन्ते यस्मिन् स सर्वशक्तिमानीश्वर:"
जो अपने कार्य करने में किसी अन्य की सहायता की इच्छा नहीं करता। अपने ही सामर्थ्य से अपने सब कार्य पूर्ण करता है। इसलिए उस परमात्मा का नाम सर्वशक्तिमान है। यहाँ 'सर्व' शब्द का अर्थ 'सब' नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है 'वे सभी कार्य जो करने योग्य है', उन्हें करने की शक्ति जिसके अंदर हैं। इसका आशय यह है कि अपना कार्य करने में निरपेक्षता अर्थात अपने कार्य करने में किसी अन्य पर आश्रित नहीं होना, यही सर्वशक्तिमत्ता है।
सत्यार्थ प्रकाश में सिद्धांती की ओर से महर्षि दयानंद सरस्वती जी इस तरह समझा रहे हैं, जब कोई व्यक्ति कहे कि ईश्वर सब कुछ कर सकते हैं तो क्या ईश्वर ऐसा पहाड बना सकता है जिसे स्वयं भी न उठा सकें? यदि कहे हाँ! बना सकता है तो फिर प्रश्न उठता है कि वह कैसा सर्वशक्तिमान है कि अपना बनाया पहाड भी न उठा सकें। यदि कहे कि नहीं बना सकता तो फिर भी सर्वशक्तिमान कैसा? जो ऐसा पहाड नही बना सकता। दोनों ओर से कुतर्की फँसाने का प्रयास करते हैं।
क्या ईश्वर स्वयं को मारकर दूसरा ईश्वर पैदा कर सकता है! यदि नहीं तो कैसा सर्वशक्तिमान? जब ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो सब कुछ में तो झूठ, छल, चोरी, सब आ गया। इसलिए 'सर्व' शब्द का अर्थ है "करने योग्य सभी कुछ"।
"कर्तुम् अकर्तुम अन्यथाकर्तुम् समर्थ:" अर्थात् करने योग्य और न करने योग्य दोनों को करने की सामर्थ्य रखने वाले को सर्वशक्तिमान नहीं कहते। बल्कि जो करने योग्य है उसे करता है और नहीं करने योग्य को नही करता, ऐसी सब शक्तियों का स्वामी है ईश्वर।
न्यायकारी - न्यायकर्ता को न्यायकारी कहते हैं। न्याय उस पक्षपात रहित धर्म रूप आचरण को कहते हैं जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों की परीक्षा से सत्य सिद्ध हो। ईश्वर को न्यायकारी इसलिए कहते हैं कि उसका स्वभाव ही न्याय अर्थात पक्षपात रहित धर्म करने का है।
दयालु - जो अभय का दाता, सभी विद्याओं को जानने, सब सज्जनों की रक्षा करने और दुष्टों को यथा योग्य दंड देने वाला है। इससे परमात्मा का नाम दयालु है।
अजन्मा - जो स्वयं जन्म नहीं लेता है। अर्थात जन्म रहित को अजन्मा कहते हैं।
अनंत - जिसका अन्त, अवधि, मर्यादा, अर्थात इतना लंबा, चौड़ा, छोटा, बड़ा है, ऐसा परिमाण नहीं है। इसलिए परमेश्वर का नाम अनंत है।
निर्विकार - जिसमें कोई विकार अर्थात रोग, दोष न हो।
अनादि - जिसका आदि कारण कोई भी नहीं है उसको अनादि कहते हैं। जिसका निमित्त, उपादान और साधारण कारण उपलब्ध नहीं होता वह अनादि है।
अनुपम - जिसकी उपमा नहीं दी जा सकती। जो सबसे उत्कृष्ट हैं। जिसके समान और जिससे बड़ा कुछ भी नहीं है। इसलिए वह अनुपम है।
सर्वाधार - जो विश्व का आधार शक्तिरूप है।
सर्वेश्वर - जो सबका ईश्वर है।
सर्वव्यापक - जो सब जगत में व्यापक हैं।
सर्वान्तर्यामी - जो सबके अंदर अंतर में रहकर सब को जानने वाला और सब जगत को नियम में रखने वाला है।
अजर - जो जीर्ण अर्थात क्षीण नहीं होता वह जरारहित अजर कहलाता है।
अमर - जिसको मरण धर्म हो ही नहीं। और सदैव जो वर्तमान ही रहे कभी भूत ना होवे।
अभय - जिसको किसी प्रकार का कोई भय न हो। भय रहित।
नित्य - जो निश्चल अविनाशी है।
पवित्र - जो स्वयं शुद्ध सब अशुद्धियों से पृथक और सबको पवित्र करने वाला है, उसको पवित्र कहते हैं।
सृष्टिकर्ता - जो सब जगत की उत्पत्ति या रचना करने वाला है। इसलिए उसका नाम सृष्टिकर्ता है।
ईश्वर के विशिष्ट गुण, कर्म, स्वभाव और सामर्थ्य के कारण उसको बहुत से नामों से पुकारा जाता है। उसका मुख्य नाम ओ३म् है। उसे परमात्मा, प्रभु, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, नारायण, अग्नि, वायु, आदित्य, महादेव, रूद्र, लक्ष्मी, प्रजापति, गणपति, भ्राता, माता, पिता, वरुण, बृहस्पति, इंद्र आदि सैकड़ों नामों से हम जानते हैं।
वह सर्वत्र व्यापक है। सूक्ष्म से सूक्ष्मतम है। कहीं कोई ऐसा स्थान नहीं जहाँ वह न हो, उसका कोई शरीर नहीं अतः उसे हम आँखों से नहीं देख सकते। वह इस साकार जगत के अंदर भी समाया हुआ है। इसके बाहर वह अनंत है। वह सर्वशक्तिमान हैं। उसने बिना जन्म लिए ही, बिना हाथ पैरों के ही इतनी बड़ी पृथ्वी, सूर्य, चंद्र, नक्षत्र बनाएं और इन सबको व्यवस्थित रूप से घुमा रहा है। हाथी से लेकर के चींटी तक असंख्य प्राणियों की जन्म मृत्यु कर रहा है। उसकी शक्ति अपरंपार है जिन्हें हम प्राकृतिक शक्तियाँ कहते हैं, वह शक्तियाँ परमात्मा की ही है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसी जड़ वस्तुओं में उसी की शक्ति काम करती हैं। भयंकर भूकंप, प्रलयंकारी बाढ़, विध्वंसक अग्नि, संहारक तूफ़ानों को देख कर भयभीत प्राणी उसकी महान सत्ता और शक्ति का लोहा मानते हैं। निश्चित ही वह परमात्मा अपनी असीम सामर्थ्य से यह सब कर रहा है। इसीलिए उसे सर्वशक्तिमान कहा है।
🌷एको देव: सर्वभूतेषु गुढ़:। सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।।
🌻ईश्वर आनन्द स्वरूप है - कैसे कह सकते हैं? आनन्द की अनुभूति किसको होती है?
आनन्द की अनुभूति आत्मा को होती है। इन्द्रियों से जो तृप्ति होती है उसको सुख कहते हैं। जो इन्द्रियों को अच्छा लगता है उसको सुख कहते हैं। जो आत्मा को अच्छा लगता है वह आनन्द है। सुख शरीर को मिलता है। आनन्द आत्मा की भूख है जो आनन्द की अनुभूति से मिटती है।
प्रकृति से जो सुख मिलता है उसमें कहीं न कहीं दुःख मिश्रित होता है। अतिसुख अंत में दुःख का कारण बन जाता है, परन्तु आनंद में जब आत्मा डूबता है तो डूबता ही चला जाता है। उस आनन्द का वर्णन किसी भी भाषा में करना असंभव है। जैसे सुख का उल्टा दुःख होता है, वैसे आनंद का उल्टा शब्द कोई नहीं होता ।
आनन्द का अनुभव (आनन्द) आत्मा को अनादि काल से अनेक बार मिला है, तभी तो वह हर योनि में उसे खोजता रहता है और हर सम्भव प्रयत्न करता है।
सांसारिक सुख मिलने पर भी वह नाखुश रहता है। वह क्या वस्तु है जिसे वह हर जन्म में ढूंढता रहता है? आनन्द - केवल आनन्द ! ईश्वर के पास आनन्द का अनन्त खजाना है। इसलिए ईश्वर को आनन्द स्वरूप कहा है। ईश्वर पूर्ण है। जो वस्तु जिसके पास होती है या जहाँ होती है, उसके पास रहने वाले को उसकी प्राप्ति होती है। ईश्वर के पास केवल आनन्द ही आनन्द है।
🌷स्व१र्यस्य च केवलम्। (अथर्ववेद-१०.८.१)
अतः उसके समीप जो होता है वह आनन्दित होता है, जैसे अग्नि से समीप बैठेंगे तो तपिश का अनुभव होता है, शरीर में गर्मी आती है, उसी प्रकार बर्फ के पास बैठने से ठण्डक मिलती है। ईश्वर की उपासना से जो वस्तु (गुण) ईश्वर के पास है वही प्राप्त होती है अर्थात् आनन्द के भण्डार से आनन्द ही प्राप्त होता है। जड़ प्रकृति के सम्पर्क से जड़ता का प्रभाव पड़ता है और चेतन के संस्पर्श से उसके गुण-कर्म-स्वभाव का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। जीव और ईश्वर दोनों चेतन सत्ता हैं। जीव अल्पज्ञ है, ईश्वर सर्वज्ञ है। जीव सत् - चित् है, आनन्द-रहित है, परन्तु ईश्वर सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, अतः ईश्वर में आनन्द है - "स्व१र्यस्य च केवलम्"। यह वेदवाणी है कि ईश्वर में आनन्द ही आनन्द है । जो जीवात्मा उसके सम्पर्क में आता है वह भी आनन्दित हो जाता है। योग-साधना से समाधि अवस्था में आनन्द का अनुभव हो जाता है। यह प्रमाणित है।
ऋषि-मुनि-आप्तपुरुषों के वाक्यों को भी प्रमाण में लाया जा सकता है। अतः ईश्वर में आनन्द है। वह सब सद्गुणों-सद्कर्मों-सद्स्वभावों का भण्डार है। अतः आनन्दानुभव जो आत्मा की भूख है, वह उस पूर्ण ईश्वर के संस्पर्श (उपासना) से ही सम्भव है, क्योंकि 'मन्द्र:' (ऋग्वेद ४.९.३) अर्थात् ईश्वर आनन्दस्वरूप है।
ईश्वर के कार्य (Acts of God)
ईश्वर के मुख्य पांच कार्य है।
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सृष्टि की उत्पत्ति करना।
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सृष्टि के आरंभ में वेदों का ज्ञान देना।
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सभी जीवो का पालन करना।
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कर्मफल व्यवस्था चलाना।
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सृष्टि की आयु पूर्ण होने पर प्रलय करना।
ईश्वर हमसे क्या चाहता है? (What does God want from us?)
ईश्वर हमसे अपने लिए कुछ नहीं चाहता, ईश्वर स्वयं पूर्ण है। उसे बाहर से किसी से भी कुछ भी लेने की आवश्यकता नहीं। वह हमारे कल्याण के लिए हमारी मुक्ति के लिए हमसे उसके बताए वेद के मार्ग पर, सत्य के मार्ग पर चलकर शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म व शुद्ध उपासना से मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा करता है। यह उसकी निष्कामता व शुद्ध दया ही है।
ईश्वर की हमें क्या आवश्यकता? (Why do we need God?)
हमें ईश्वर की ही आवश्यकता है क्योंकि जीवात्मा अल्पज्ञ अल्पशक्ति होने से पूरी तरह ईश्वर पर निर्भर है। यह स्वयं अपने लिए ना शरीर बना सकता है, न शरीर को पालने के लिए, न रक्षा करने के लिए कोई पदार्थ, द्रव्य बना सकता है। बिना साधनों के जीवात्मा हिल भी नहीं सकता। अतः इसको संपूर्ण साधन और मुक्ति के लिए मानव शरीर ईश्वर ही देता है। यह पूर्णतया ईश्वर के ज्ञान, बल, आनंद आदि गुणो को प्राप्त करके त्रिविध दुखों से मुक्त होता है। अतः ईश्वर की आवश्यकता जीव आत्माओं को है। जीवात्माओं से ईश्वर को कोई लाभ या हानि नहीं होती। जबकि ईश्वर के नियमों के विरुद्ध जीवात्मा/मनुष्य आचरण करता है तो दंड का भागी बन जाता है और जब उसके नियम में चलते हुए उसकी उपासना करता है, तो उसके पुरस्कार का अधिकारी बनता है। मोक्ष का साधन ईश्वर ही है इसलिए ईश्वर को लक्ष्मी भी कहते हैं। अर्थात् लक्ष्य प्राप्त कराने का साधन लक्ष्मी कहलाता है। जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है उस लक्ष्य तक ले जाने वाले साधन को अर्थात ईश्वर को लक्ष्मी कहते हैं।
ईश्वर भक्ति से हमें क्या लाभ? (What do we gain from devotion to God?)
ईश्वर भक्ति से जीव/उपासक को प्राप्त होने वाले लाभ इतने हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती फिर भी कुछ लाभ यहाँ पर प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
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अविद्या का नाश और विद्या की प्राप्ति ईश्वर भक्ति से ही होती है।
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समस्त क्लेशों से, बंधनों से मुक्ति केवल ईश्वर द्वारा ही संभव है।
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ईश्वर से नित्य आनंद की प्राप्ति होती है।
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ईश्वर उपासक मन और इंद्रियों पर वश्यता प्राप्त कर लेता है।
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सदा निष्काम कर्म करने की सामर्थ्यता प्राप्त हो जाती है।
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साधक को ऐसा सामर्थ्य प्राप्त होता है कि वह सब के साथ प्रेम पूर्वक बर्ताव करता है। किसी के साथ द्वेष नहीं रखता।
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ईश्वर के सानिध्य से जीव आनंद का उपभोग करता है।
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ईश्वर से जुड़ा व्यक्ति तन, मन, धन से प्राणी मात्र के उपकार में तल्लीन रहता है।
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उपासना करने वाले मान-अपमान से दु:खी नहीं होते।
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उपासक को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह समस्त प्राणियों को आत्मवत् देखता है।
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सभी के सुख-दु:ख, लाभ-हानि को अपने सुख-दु:ख, लाभ-हानि के समान समझता है।
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ईश्वर उपासक को ऐसी पवित्रता प्राप्त होती है कि वह मद्य, मांस आदि का सेवन नहीं करता।
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ईश्वर के नियमों में रहकर सदा सात्विक एवं न्याय द्वारा उपार्जित भोजन को ही ग्रहण करता है।
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सभी के साथ न्याय पूर्वक आचरण करने का सामर्थ ईश्वर के भक्तों को ही प्राप्त होता है। वह अन्याय छोड़ देता है।
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ईश्वर सानिध्य में अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने की शक्ति और आत्मविश्वास बढ़ता रहता है।
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ईश्वर भक्तों को ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है कि वह सदा सत्य ही बोलते हैं। असत्य और दुराग्रह नहीं करते।
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ईश्वर उपासना करने वाले पर्वत के समान मुसीबत/कष्ट आने पर भी घबराते नहीं। सब दु:खों को हँसकर सहन कर जाते हैं।
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ईश्वर उपासना से पापवृत्तियाँ नष्ट हो जाती है और सच्चाई अच्छाई के मार्ग पर चलने की शक्ति बढ़ती है।
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जीवन का उद्देश्य मुक्ति है अर्थात मोक्ष। मोक्ष अर्थात छूट जाना। किससे? दु:खों से छूट जाना। आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक दु:खों से छूट जाए यही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। जो केवल और केवल ज्ञानपूर्वक निष्काम कर्म करते हुए ईश्वर की उपासना करके ही पूरा हो सकता है।
🌷नान्य: पन्था विद्यते अयनाय।
अर्थ :- कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था (God's principle of karma)
ईश्वर इस जगत का स्वामी है। वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी है। सबको सब जगह, सब समय, सभी ओर से देखता है। इसलिए वह सभी मनुष्य के शुभ-अशुभ और निष्काम कर्म को देखता है, जानता है, उसी के अनुसार मनुष्य को सुख-दु:ख भोगने के लिए मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीर, साधन आदि देता है या मुक्ति प्रदान करता है।
कर्मफल के मुख्य सिद्धांत
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सभी जीव ईश्वरीय व्यवस्था में रहकर कर्म करने में स्वतंत्र है और फल भोगने में ईश्वर के अधीन अर्थात परतंत्र है।
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कर्म का फल स्वतंत्र कर्ता को ही मिलता है।
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कर्म पहले होता है फल बाद में होता है।
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शुभ या पुण्य कर्म का फल सुख के रूप में तथा अशुभ कर्म का फल दुख के रूप में ईश्वर सभी मनुष्य को देता है।
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पुण्य एवं पाप दोनों कर्मों के फल अलग-अलग मिलते हैं एक से दूसरे को काटा नहीं जा सकता।
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जो मनुष्य अपने पाप कर्म का प्रायश्चित कर लेता है जितनी मात्रा में वह प्रायश्चित करता है ईश्वर उतना दंड कम कर देता है।
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ईश्वर सभी कर्मो का फल तुरंत नही देता। कुछ फल तात्कालिक, कुछ कर्मो का दीर्घकाल में तथा कुछ अगले जन्मान्तर में देने के लिए बच जाता है।
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कर्मों का फल जाति(शरीर) आयु एवं भोग (सुख दुख भोगने के साधन) के रूप में मिलता है।
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किसी के साथ अन्याय होने पर वह न्याय करता है और उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है और अन्याय करने वाले को दंड देता है।
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उसकी आज्ञानुसार अर्थात् वेदानुकूल आचरण करने वाले मनुष्यों को ईश्वर मुक्ति अर्थात् मोक्ष प्रदान करता है।
ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था को विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
ईश्वर ने दुनिया क्यों बनाई? (Why did God create the world?)
भगवान ने इस संसार को क्यों बनाया? यह प्रश्न दर्शन कक्षा में या प्रवचन के दौरान सामान्यतः लोग हमसे पूछते रहते है।
इसका उत्तर है- ईश्वर ने यह दूनिया हमारे (जीवों) कर्मो के भोग, सुख, दु:ख भुगाने के लिए बनाई। हम सब जीवात्माएँ ज्ञान, बल, आनंद प्राप्त करना चाहते है, क्योंकि जीव अल्पज्ञ है। इसे नैमित्तिक अर्थात् बाहर से या कहे कि ईश्वर से ज्ञान, शक्ति, आनंद आदि प्राप्त करने पड़ते हैं। आत्मा का अपना/स्वाभाविक ज्ञान नहीं है। इसे बाहर किसी से ज्ञान लेना पड़ता है।
चूंकि ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंद स्वरूप है। वह जानता है कि जीवात्माएँ उसके साथ अनादि काल से है और उसी के ज्ञान, बल, आनंद पर निर्भर है। इसलिए उसका कर्तव्य है। वह अपनी ज्ञानबल से जीवों पर शुद्ध कृपा करता है अर्थात निष्काम कर्म करता है। वह संसार को अपने आनंद के लिए, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि जीवों के सुख, दु:ख, भोग व मुक्ति देने के लिए रचता है। वह तो स्वयं में परिपूर्ण हैं। उसे किसी की आवश्यकता नहीं।
मैं आपसे पूछता हूँ यदि कोई शक्तिमान है, लेकिन उस शक्ति का प्रयोग नहीं करता तो उसका शक्तिमान होना या न होना बराबर है। यदि कोई डॉक्टर है और चिकित्सा ही नहीं करता, तो उसका डॉक्टर होना, न होना बराबर है। हम सब जीवात्माएँ रोगी हैं। अविद्या से ग्रस्त होते हैं। ईश्वर हम सबका डॉक्टर है। वह अपना कर्तव्य समझता है। उसे पता है, इसलिए उसकी जिम्मेदारी है। वह करता है, क्योंकि कोई दूसरा करने वाला उसके समान नहीं ।
इसलिए इस संसार की रचना हमारे अनादि कर्म भोग व बार-बार मुक्ति देने के लिए है।
इसलिए ईश्वर बार-बार सृष्टि और प्रलय करता रहता है।
देवता कौन होते हैं? कितने प्रकार के होते हैं? (Who are the Deity? How many types of Deities are there?)
जो दिव्य गुणों से युक्त होते हैं वे देव कहलाते हैं। जो हम सबके कल्याण के लिए पक्षपात रहित होकर बिना अपेक्षा के हमें कुछ देते हैं। वे सब देव होतें हैं।
देव दो तरह के होते हैं।
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जड़/अचेतन देव।
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चेतन देव।
जड़ अर्थात निर्जीव पदार्थो से हमें आधार, साधन, सुविधाएँ व सुरक्षा प्राप्त होती है।
ये 33 कोटि/प्रकार के होते हैं। 33 कोटि का अर्थ करोड़ नही, बल्कि 33 प्रकार के देव देवी होते हैं।
कोटि = प्रकार।
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है। कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता है।
अज्ञानी लोगो ने यह बात फैलाई हिन्दुओ(आर्यो) के 33 करोड़ देवी देवता हैं। और अब तो अज्ञानी हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं कि हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं।
आज भी बड़े-बड़े कथाकार आदि बड़े मंचो से यही झूठ बोलते रहते है। उन्हें हमारी चुनौती है कि आप करोड़ो छोड़िए 1000 देवताओ के ही नाम गिना दें।
वास्तव में कुल 33 प्रकार के देवी-देवता हैं हमारे वैदिक धर्म मे :-
*33 कोटि देवता होते है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र
यह सभी सृष्टि के निवास स्थान होने से 8 वसु है।
5 प्राण-
प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
5 उपप्राण
नाग, कुर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय,
और जीवात्मा
ये 11 रूद्र है, क्योंकि जब यह शरीर छोड़ते हैं तो रोदन कराने/अर्थात परिजनों को रूलाने वाले होते हैं। इसलिए रूद्र कहलाते हैं।
संवत्सर के 12 महिने 12 आदित्य इसलिए है कि ये सब आयु को लेते जाते है।
32 वां इंद्र अर्थात बिजली/विद्युत परम् ऐश्वर्य को देने वाली है।
33 वां प्रजापति अर्थात यज्ञ जिससे पर्यावरण की शुद्धि, विद्वानो का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्प विद्या से प्रजा का कल्याण होता है।
परन्तु इन मे से कोई देव उपास्य नहीं है, क्योंकि यह सब तो जड़ है। इनकी पूजा,यज्ञ आदि के द्वारा करनी चाहिए।
चेतन देव-
चेतन देव भी दो तरह से माने जाते हैं।
एक तो पृथ्वी पर जीवन देने वाले माता, पिता व विद्या दान देकर परम हित करने वाले आचार्य ओर गुरूजन व समाज के हित में कार्य करने वाले डॉक्टर वैज्ञानिक आदि भी चेतन देव है। इनका सभी को सम्मान करना चाहिए, लेकिन सबसे बड़ा देवों का देव महादेव अर्थात ओ३म् है। वहीं सबका उपास्य देव है।
शतपथ ब्राह्मण के 14 वे खण्ड मे स्पष्ट लिखा है कि इन सब जड़ देवताओं का स्वामी और सबसे बड़ा होने से केवल परमात्मा (महादेव) ही 34 वां उपास्य देव है। जिसका नाम ओ३म् है।
अर्थात परम पिता परमात्मा की ही उपासना करनी योग्य है अन्य किसी की नहीं। अगर सब यह समझ ले और मान ले तो मनुष्य अनेक ईश्वर रूपी भ्रमजाल मे न फँसे।
महाशक्तिमान् के स्मरण से शक्ति (Power from remembrance of the superpower)
यह कैसे हो सकता है कि उस महान परमशक्तिशाली परमेश्वर के स्मरण मात्र से ही मनुष्य के अंदर शक्तियों का प्रवेश होने लग जाए? यह बात जितनी रहस्यमयी है, उतनी ही आनंददायी भी है। इस बात का अनुमान आप इस तरह से कर सकते हैं कि आप नित्य, प्रतिदीन जो चिंतन अपने मन में कर रहे होते हैं, वैसे ही भावों के साथ आपका शरीर, इन्द्रियाँ आदि क्रियाशील होते है। योद्धाओं/ क्षत्रियों का चिंतन करते-करते एक बालक के अंदर वीरता, क्षत्रियता तत्व उत्पन्न होने लगता है, क्या इसमें संशय है! ऋषि-ऋषिकाओं का जीवन वृत्तांत पढ़ते-पढ़ते जीवन में वैराग्य व पवित्रता बढ़ने लगती है। जैसा मनुष्य सोचता है वैसा वह बन जाता है। गर्भवती माता के हृदय में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं वह गर्भ में स्थित बालक के मानसिक जीवन का आधार बनते हैं।
यदि मनन चिंतन की शक्ति इतनी प्रभावशालिनी है तो उस महाशक्तिमान् के गुणों के स्मरण से मनोबल व आत्मशक्ति का अद्भुत लाभ क्या मानव को नहीं मिल सकता? निसंदेह बलशाली का स्मरण करना यथार्थ में बल के लिए अपनी आत्मा के दरवाजे खोल देना है। क्या महाज्योतिर्मय के संग ज्योति को मिला देने से बुझा हुआ दीपक ज्योतिर्मय नही हो जाता! संग का प्रभाव हुए बिना नहीं रह सकता। जब मिट्टी में उगे हुए नीम के वृक्ष पर गिलोय की लता चढ जाती है तो गिलोय में नीम का प्रभाव स्वत: ही आ जाता है। सादे श्वेत वस्त्र को रंगीन जल में डालने मात्र से वह वस्त्र रंग-रूप बदल देता है। जल को अग्नि के निकट करने मात्र से अग्नि जल के अंदर आ जाती है। जब नारंगी के साथ जोड़कर दूसरे पौधे को संग कर दिया जाता है तो वह स्वयं ही नारंगी से मिल जाता है। इस जगत के महाशक्तिशाली चेतन परमेश्वर के गुणों का चिंतन(स्तुति),स्मरण मानव को महामानव व परम आनंद से भर देता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं।
ईश्वर का जप वेदमंत्रों के द्वारा या संस्कृत भाषा में ही क्यों? (Why chanting of God through Veda Mantras or in Sanskrit language only?)
क्या हिंदी, अंग्रेजी, तमिल, बांग्ला, या रशियन, चीनी किसी भी भाषा में ईश्वर का स्मरण करना उपयोगी नहीं है? क्या संस्कृत को छोड़कर ईश्वर किसी भाषा को नहीं समझते?
इसे आप इस तरह से समझे। जैसे अपने से बड़े अधिकारी को पत्र देते हुए कोई भी भाषा शुद्ध व पूर्ण हो इसका ध्यान रखते हैं। प्रार्थना करने के लिए विनय भरे शब्दों को प्रयोग में लाया जाए तो प्रार्थी की प्रार्थना सुन ली जाती है, लेकिन यदि प्रार्थना के लिए अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग किया जाए तो एक सामान्य मनुष्य भी उसको नहीं सुनता। क्योंकि संस्कृत भाषा पूर्ण है, शुद्ध है, विकार रहित है यह संसार की एकमात्र भाषा है जो त्रुटियों से मुक्त है। जिसके अक्षर व शब्द मानव की नाभि, कंठ, तालू, जिह्ला, दंत, ओष्ठ आदि को पवित्र करते हुए शब्दों के निश्चित अर्थपूर्वक, विनम्रता से युक्त व सबको समान रूप से, समान पुरुषार्थ(परिश्रम) से उपलब्ध होने वाली ईश्वरीय भाषा है। संस्कृत भाषा को पढ़ने में क्योंकि सबको समान पुरुषार्थ लगता है, इसलिए ईश्वर तक अपनी भावनाओं को पहुँचाने में सार्थक है। अन्य भाषाओं के शब्दों के अर्थ उतने परिमार्जित नहीं है। इसलिए संस्कृत भाषा में ही वेदों को बताया गया है जोकि सर्वप्रथम, सर्वश्रेष्ठ और सर्व ग्राह्य है। संस्कृत भाषा के शब्दों को दूसरी लौकिक भाषाओं में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। अन्य भाषाएँ उस अर्थ को नहीं दे सकती जो वेदों के शब्द हैं। अतः ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना संस्कृत मंत्रों द्वारा ही करनी अभीष्ट है। तभी उसका पूर्ण लाभ व सफलता प्राप्त हो सकती है। ईश्वर हमारे हृदय के भावों को जानता है, लेकिन वे भाव भी किसी न किसी भाषा में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि ईश्वर गूंगे की भाषा भी समझता है, भाषा का संबंध नहीं है, केवल भाव ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि भाव भी किसी न किसी भाषा में ही होते हैं और भाषा में शब्द होते हैं उसके अर्थ और प्रार्थनाएँ होती है।
ईश्वर की प्राप्ति के उपाय (Ways to reach God)
शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म और शुद्ध उपासना के द्वारा ईश्वर साक्षात्कार होता है। इसके लिए अष्टांग योग का विधिवत पालन करने से मनुष्य उसका अधिकारी बनता है। बिना अष्टांग योग का पालन किए ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं है।
अष्टांग योग
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इन 8 अंगों का विधिवत पालन व अभ्यास करने से मनुष्य ईश्वर प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।
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यम - ये पाँच होते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह।
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नियम - यह भी पाँच होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
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आसन
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प्राणायाम
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प्रत्याहार
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धारणा
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ध्यान
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समाधि
अष्टांग योग को विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना कैसे करें?(How to praise, pray or worship God?)
1. भगवान की भक्ति के लिए सर्वप्रथम भगवान की आज्ञा का पालन करना अर्थात वेद के अनुसार जीवन जीना। जो भी कर्म वेद में मनुष्य के लिए निहित है वह सब करना तथा जो निषिद्ध है वह नहीं करना।
वेदादेश ही ईश्वर का आदेश है। वेद ईश्वर का संविधान है जो सृष्टि की उत्पत्ति के बाद सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाले मनुष्य को समाधि अवस्था में अंतःकरण में दिया गया। वेदों में कोई इतिहास नहीं है, कोई राजा रानी की कहानी नहीं है। उसमें विधि और निषेध है अर्थात् यह करना, यह नहीं करना, इसे करने से दु:ख मिलेगा, नरक भोगना पड़ेगा और इसे करने से सुख मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, मुक्ति मिलेगी।
ये सब बातें ईश्वर ने चारों वेदों में ऋषियों के द्वारा बताई।
जैसे कोई प्रजा का व्यक्ति राजा के संविधान का उल्लंघन करके राजा का प्रिय नहीं बन सकता, जैसे कोई पुत्र पिता की आज्ञा का उल्लंघन करके पिता का प्रिय नहीं बन सकता, वैसे ही ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करके कोई ईश्वर का प्रिय नहीं बन सकता, बल्कि दंड का भागीदार बन जाता है।
2. प्रतिदिन विधिवत् ईश्वर का ध्यान करना। शान्त एकान्त स्थान पर किसी उपयुक्त आसन में, बिना हिले-डुले, आँखे बंद करके, बैठकर ऑडियो सुनकर भी आप यह स्तुति, प्रार्थना, उपासना सीख सकते हैं। प्रत्यक्ष गुरु के सानिध्य में भी सीख सकते हैं वह बहुत अच्छा है।
🌻वेदों में अनेक मन्त्र हैं, जिनमें परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का उपदेश है। आइए पहले इसके अर्थों पर मनन करें।
स्तुति: ईश्वर के गुणों का चिन्तन करना, ईश्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारना।
स्तुति २ प्रकार की होती है:
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सगुण स्तुति : ईश्वर में जो-जो गुण हैं, उन-उन गुणों के सहित स्तुति सगुण स्तुति कहलाती है। जैसे, ईश्वर पवित्र है, तो हम भी पवित्र बने।
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निर्गुण स्तुति : जिस-जिस गुण से ईश्वर पृथक है, उन गुणों/अवगुणों से स्वयं को पृथक करना निर्गुण स्तुति कहलाती है। जैसे, ईश्वर निर्विकार है, तो हम भी निर्विकारी बने।
प्रार्थना: नम्रतापूर्वक ईश्वर से निवेदन करना। इससे निरभिमानता, उत्साह और सहायता मिलती है।
उपासना: अष्टांगयोग का अनुष्ठान करना। योग के 8 अंग निम्नलिखित हैं:
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यम - ये पाँच होते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह।
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नियम - यह भी पाँच होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
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आसन
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प्राणायाम(वाह्यवृत्ति, आभ्यान्तरवृत्ति, स्तम्भवृत्ति, वाह्य-आभ्यान्तर-विषय-आक्षेपी)
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प्रत्याहार
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धारणा
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ध्यान
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समाधि
संयम उपासना का नवम् अंग है।
अष्टांगयोग के निरन्तर अभ्यास से, शरीरस्थ मलदोष, चित्तस्थ विक्षेप-दोष, बुद्धिगत आवरण-दोष दूर होकर, परमात्मा का साक्षात्कार होता है।अष्टांग योग को विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
🌻वेद मंत्रों में आए परमात्मा के कुछ नामों का अर्थ :
🌷ओ३म् खं ब्रह्म।। ( यजुर्वेद ४०/१७ )
ओ३म् = सबका रक्षक ब्रह्म परमेश्वर जो आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है |
🌷प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे। यो भूतः सर्वस्य ईश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्।। ( अथर्व ११/४/१ )
ईश्वर = आश्वर्यवान संसार के समस्त पदार्थों का स्वामी
🌷तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्। ( ऋग्वेद १/२/७/२० )
विष्णु = सर्वत्र व्यापकशील और सुंदर विशेषणों से युक्त सबको धारण करने वाला परमात्मा
🌷अभि प्रियाणि काव्या विश्वा चक्षाणो अर्षति। हरिस्तुञ्जान आयुधा।। ( ऋग्वेद ९/५७/२ )
हरि = दुखों को हरने वाला परमात्मा
🌷भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः।। ( अथर्ववेद १९/२२/२१ )
ब्रह्मा = सबसे बड़ा सर्वजनक परमात्मा
🌷ब्रह्मणा तेजसा सह प्रति मुञ्चामि मे शिवम्। असपत्ना सपत्नहा सपत्नान मेऽधराँ अकः।। ( अथर्ववेद १०/६/३० )
शिव = सर्वकल्याणकारी मंगलकारी परमेश्वर
🌷नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। ( यजुर्वेद १६/४१ )
शंकर = सदा धर्मयुक्त कर्मों को प्रेरित करने वाला परमेश्वर
🌷त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम्। ऊर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्।। ( ऋग्वेद ७/५९/१२ )
त्र्यम्बक = भूत, भविष्य व वर्तमान तीनों कालों के ज्ञाता तथा कार्य जगत, कारण जगत व सब जीवात्माओं का स्वामी परमेश्वर
🌷गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे ...।। ( यजुर्वेद २३/१९ )
गणपति = सब प्रकार के समूहों, समुदायों व मंडलों आदि के स्वामी परमेश्वर
🌷सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेव। रश्मिर्भिर्तभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः।। ( अथर्ववेद १३/४/४ )
इस मंत्र में ईश्वर के कई नाम आये हैं -
अर्यमा = श्रेष्ठों का मान करने वाला परम पिता परमात्मा
महादेव =देवों का देव महादानी परमात्मा
वरुण = सर्वश्रेष्ठ
रुद्र = दुष्टों को रुलाने वाला ज्ञानवान
महेन्द्र = सबसे बड़ा और सबसे महान ऐश्वर्यवान
🌷इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुप्रणो गुरुत्मान्। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः।। ( अथर्ववेद ९/१०/२८ )
इस मंत्र में भी ईश्वर के कई नाम आये हैं-
इन्द्र = अत्यन्त ऐश्वर्यशाली परमात्मा
मित्र = सबका सहायक, सबको प्रीति करने वाला परमेश्वर
अग्नि = ज्ञानस्वरूप सर्वव्यापी जानने योग्य चेतन परमात्मा
दिव्य = प्रकाशमय, उत्कृष्ट गुणों से युक्त देव परमात्मा
सुपर्ण = सुंदर ढंग से पालन करने वाला सामर्थ्यवान परमात्मा
गुरुत्मान = महान आत्मा वाला
यम = न्यायकारी जगत् नियन्ता परमात्मा
ऐसे कई नाम एक ही निराकार परम पिता परमात्मा के वेदों में आए हैं। इन्हीं नामों के आधार पर बहुत से महापुरुषों के नाम भी संसार में हुए हैं। समय बीत जाने के साथ लोगों ने अज्ञानता वश इन्हीं महापुरुषों के नाम और इनकी महिमा वेदों में समझ ली और ऐसी मान्यता बना ली कि ईश्वर अनेक होते हैं और अवतार लेते हैं जिनका नाम वेदों में लिखा है। जो कि निराधार कल्पना है। ईश्वर एक ही है, निराकार है, सर्वव्यापक है, कण कण में व्यापक होकर सबको धारण और सबका पालन कर रहा है। सबको कर्मों के अनुसार यथायोग्य फल भी देता है। जिसका सर्वश्रेष्ठ नाम ओ३म् है।
शेष जितने भी असंख्य नाम वेदों में हैं वे सब उसके असंख्य गुणों के अनुसार ही हैं। जैसे विष्णु, शिव, रुद्र, इन्द्र, लक्ष्मी, सरस्वती, जगदम्बा आदि ये सब नाम उस निराकार ओ३म् के ही हैं। जिसकी उपासना हमारे पूर्वज ऋषि मुनि आदि सब योगाभ्यास की रीति से करते आ रहे हैं।
परमेश्वर के भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न प्रकार की मूर्तियां बना कर पूजना, उनका हार श्रृंगार करना, उनको भोग लगाना, उन पर फल-फूल, जल, दूध, तेल चढाना, उनमें प्राण डालने का नाटक करना, उनको परमात्मा का प्रतीक मानना आदि कोरी अज्ञानता है, नादानी है, मूढता है, यह अवैदिक विधि है। चेतन ईश्वर के वास्तविक स्वरूप से भिन्न जड पूजा न तो सीढी है, न ही कोई प्रथम कक्षा की बात है ओर न ही इसका विरोध करने से नास्तिक हो जाने की बात है।
यह वास्तव में ऐसी खाई है जिसमें गिर कर व्यक्ति का आत्मिक विकास रुक जाता है और मृत्यु पर्यन्त उसी में पडा रह जाता है। यज्ञ, योग ,परमात्मा के सर्वोत्तम ओ३म् नाम का स्मरण और वेदानुकूल आचरण ही उस प्रियतम जगतनियन्ता की भक्ति है।
बहुमूल्य दुर्लभ मनुष्य जन्म को बेकार की बातों में नष्ट करना उचित नहीं।