ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था (God's principle of karma)
ईश्वर इस जगत का स्वामी है। वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी है। सबको सब जगह, सब समय, सभी ओर से देखता है। इसलिए वह सभी मनुष्य के शुभ-अशुभ और निष्काम कर्म को देखता है, जानता है, उसी के अनुसार जीवात्मा को सुख-दु:ख भोगने के लिए मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीर, साधन आदि देता है या मुक्ति प्रदान करता है।
सांख्य दर्शन के रचयिता, संसार को दिव्य ज्ञान के देने वाले, संसार को राह दिखाने वाले परम योगी महर्षि कपिल "कर्मवैचित्र्यात सृष्टिवैचित्र्यम्" सूत्र के द्वारा स्पष्ट बता रहे है कि भिन्न-भिन्न कर्मो के आधार पर ईश्वर सबको भिन्न प्रकार से शरीर साधन आदि देता है, क्योंकि सबके कर्म अलग-अलग है। इसलिए शरीर आदि की भिन्नता से फल भी अलग-अलग दिखाई देता है।
🌻कर्मफल के मुख्य सिद्धांत
1. सभी जीव ईश्वरीय व्यवस्था में रहकर कर्म करने में स्वतंत्र है और फल भोगने में ईश्वर के अधीन अर्थात परतंत्र है।
जीवात्मा अल्पज्ञ है इसलिए अपने कर्मों का फल स्वयं नहीं ले सकता, न ही दूसरे के कर्मों का फल ठीक-ठीक दे सकता है, क्योंकि यह सभी कर्मों को जान नहीं सकता और उसके पीछे का भाव भी जीव को नहीं पता होता। जीवात्मा को यह भी नहीं पता कि किस कर्म का कितना फल देना होता है। प्रकृति जड़ है इसलिए वह किसी को फल देने में असमर्थ है। अतः किसी तीसरी चेतन सत्ता की आवश्यकता है जोकि सभी के सब कर्मों को ठीक-ठीक जानता हो, वही ईश्वर न्यायकारी इस व्यवस्था को चलाता है।
संसार में जीवात्माएँ असंख्य है। केवल ईश्वर ही जीवात्माओं की संख्या जानता है, क्योंकि वह सबको सब समय, सब स्थान पर देखता है और सबके सभी कर्मों को जानता है। तो निष्पक्ष होकर वही ठीक-ठीक न्याय कर सकता है।
2. कर्म का फल स्वतंत्र कर्ता को ही मिलता है।
यदि कोई व्यक्ति किसी की पराधीनता में विवश होकर न चाहते हुए कार्य कर रहा है तो उस कर्म का फल करने वाले को नहीं बल्कि कराने वाले को मिलता है। जैसे कोई बडा/बलवान व्यक्ति किसी बालक/निर्बल को डराकर, प्रलोभन देकर, दबाव देकर, डांटकर उससे चोरी, झूठ, हिंसा आदि कराता है तो उसका दोष बड़े या बलवान कराने वाले व्यक्ति को जाता है। उसी को उस कर्म का कर्ता माना जाएगा। वही अपराधी है, उसी को फल मिलेगा।
नोट:- यहाँ पर कृतहानि अकृताभ्यागम दोष नहीं आयेगा अर्थात् कर्म करे कोई ओर उसका फल किसी दूसरे को भोगना पड़े ऐसा नहीं होगा।
3. कर्म पहले होता है फल बाद में होता है।
पहले कर्म होता है उसके बाद उसका फल मिलता है। यह व्यवस्था ही न्याय संगत है। यदि कर्म से पहले ही उसका फल दे दिया जाएगा तो यह न्याय के विरुद्ध हो जाएगा। लोक में भी देखा जाता है कि पहले अपराध होता है उसके बाद जेल होती है। दुनिया में ऐसा कोई जज नहीं है जो किसी व्यक्ति को यह कहकर जेल में डाल दें कि आप भविष्य में चोरी करेंगे इसलिए आप को पहले से ही जेल में जाना होगा। यदि किसी ने पहले अपना रिकॉर्ड खराब किया है तो उससे/उसे अनिष्ट की संभावना से बचने/ बचाने के लिए दंड दे सकते है। न्यायधीश भी कभी-कभी अपराध से बचाने के लिए अपराध करने से पहले ही साजिश रचते समय ही जेल में डाल सकते हैं। लेकिन यदि किसी के मन में भी अपराध का विचार नहीं है और उसने कोई भावना वाणी से भी प्रकट नहीं की है और न शरीर से तो उसे दंड देने वाला ही अपराधी हो जाएगा। चाहे वह यहाँ का राजा हो या सामान्य नागरिक।
नोट- सांसारिक जीव/मनुष्य अल्पज्ञता के कारण न्यायधीश नहीं हो सकता। वह फैसला सुना सकता है। संविधान के अनुसार दंड कम या अधिक ही देता है। ठीक-ठीक उसको नहीं पता होता कि किस कर्म का फल कितना होता है? इससे न्यून नहीं और इससे अधिक भी नहीं, ऐसा तो केवल परमेश्वर ही है जो सही न्याय करता है।
4. शुभ या पुण्य कर्म का फल सुख के रूप में तथा अशुभ कर्म का फल दु:ख के रूप में ईश्वर सभी मनुष्य को देता है।
सभी मन, वाणी व शरीर से किए गए शुभ कर्मों का फल ईश्वर सुख के रूप में देता है। तथा पाप कर्मों का फल दु:ख के रूप में देता है। पाप और पुण्य के फल को भोगने के लिए जन्म/शरीर देता है। योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि के अनुसार "सतिमूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा" अर्थात कर्मों के फल जब विपाक को प्राप्त हो जाते हैं (अर्थात फल प्राप्ति का समय आता है) तो शरीर, आयु और भोग- साधन उच्च या निम्न सभी को भिन्न-भिन्न मिलते हैं। ईश्वरीय व्यवस्था से कर्मफल के अनुसार सबके शरीर अलग-अलग हैं। सब की आयु भिन्न है तथा सभी के लिए भोग साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं।
सांख्य दर्शनकार महर्षि कपिल मुनि के अनुसार "कर्म वैचित्र्यात् सृष्टि वैचित्र्यम्" अर्थात सभी जीवो के कर्म विचित्र भिन्न-भिन्न है इसलिए सृष्टि में भी विचित्र भिन्नता दिखाई देती है। इसी प्रमाण से पुनर्जन्म का सिद्धांत भी सत्य सिद्ध हो जाता है कि संसार में एक न्याय व्यवस्था काम कर रही है जिससे सबके शरीर, साधन व आयु भिन्न-भिन्न है, क्योंकि किन्हीं दो जीवो(मनुष्यों) के भी कर्म समान नहीं है, इसलिए किसी दो जीव(मनुष्य),पशु-पक्षी की आकृति/शक्ल/साधन आदि भी नहीं मिलते।
5. पुण्य एवं पाप दोनों कर्मों के फल अलग-अलग मिलते हैं। एक से दूसरे को काटा नहीं जा सकता।
ईश्वर न्यायकारी है इसलिए कर्म का फल कम/अधिक नहीं देता। जो जैसा जितनी मात्रा में जिस भावना से कर्म करता है ईश्वर उतना ही ठीक-ठीक फल देता है। पुण्य कर्म का फल सुख आदि तथा पाप का फल दु:ख के रूप में देता है। पाप और पुण्य का फल अलग-अलग दु:ख और सुख के रूप में मिलता है जिसे एक दूसरे से काटा नहीं जा सकता। इसे आप इस तरह से समझ सकते हैं कि जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत अच्छा कर्म किया, कुछ लोगों की जान बचाई तो सरकार ने उसे पुरस्कृत किया उसका सम्मान किया। तथा उसी व्यक्ति ने आगे चलकर अपने अभिमान व शक्ति के दुरुपयोग से बहुत सारे लोगों को मारना पीटना लूटना शुरू कर दिया तो सरकार प्रशासन उसके पूर्व में किए गए पुण्य कर्म के बदले वर्तमान के पाप कर्मों को माफ नहीं कर सकती। उसको जैसे अच्छे कर्म के लिए पुरस्कार मिला था तो बुरे कर्म के लिए दंड भी अवश्य मिलेगा। यदि फिर से जीवन में पुण्य कर्म करता है तो पुनः उसके पुण्य कर्मों का फल भी सुख/पुरस्कार के रूप में मिलेगा ही। परंतु एक से दूसरा काटा नहीं जा सकता दोनों का मिलेगा अलग-अलग मिलेगा।
केवल प्रायश्चित या तप, स्वाध्याय आदि करके दुःख न्यून किया जा सकता है। इसके विपरीत जैसे किसी को यज्ञ परोपकार आदि करके भी दु:ख प्राप्त हो रहा है तो लोग संशय करने लगते हैं कि देखो ईश्वर का अन्याय इतने अच्छे काम करने वाला व्यक्ति भी दु:ख भोग रहा है और बुरे काम करने वाले सुखी संपन्न हो रहे हैं। यदि ऐसा कहीं दिखता है तो यह नहीं सोचना चाहिए कि ईश्वर उनके पाप कर्मों को माफ कर देगा और यज्ञ आदि करने वाले के पुण्य कर्मों को भुला देगा, उनका पुरस्कार सुख आदि के रूप में नहीं देगा। हो सकता है कि सुख-दु:ख किसी और निमित्त से आ रहे हो। सुख व दु:ख आधिभौतिक भी होते हैं अर्थात दूसरों के कारण से न्याय-अन्याय पूर्वक भी मिलते हैं। स्वयं के कर्मों का फल जब मिलना शुरू होगा तो तब न्याय ठीक-ठीक हो जाएगा।
6. जो मनुष्य अपने पाप कर्म का प्रायश्चित कर लेता है, जितनी मात्रा में वह प्रायश्चित करता है, ईश्वर उतना दंड कम कर देता है।
प्रायश्चित कर लेने पर ईश्वर उतना ही दंड कम कर देता है जितना कि कर्ता ने स्वयं को जप, तप, स्वाध्याय, उपवास करके शुद्ध कर लिया और जो धर्म पालना करने से कष्ट आदि हुआ या सहन किया उतना-उतना ही अपराध ईश्वर क्षमा कर बचा हुआ दंड ही देता है। यही न्याय संगत भी है। जैसे किसी चोर ने चोरी की और किसी सत्संग आदि में जाकर उसे अपने अपराध के प्रति ग्लानि अनुभव हुई और उसने चोरी किया हुआ धन एक सभा में सभी के सामने स्वीकार किया और धन के स्वामी को उसका धन लौटा दिया तथा सबके सामने अपने पाप का प्रायश्चित किया तो उसे अब उतना दंड नहीं दिया जा सकता जितना कि प्रायश्चित एवं ग्लानि से पहले देना अभीष्ट था। क्योंकि उसने पहले ही बहुत सारा दंड स्वयं को दे दिया है। इसलिए वह क्षमा के योग्य है। सभा के मध्य उसका जो अपयश हुआ है वह भी एक दंड का ही रूप है। ईश्वर न्याय कारी है इसलिए एक ही अपराध के लिए बार-बार दंड नहीं देता।
इसे एक दूसरे उदाहरण से भी आप समझ सकते हैं कि एक बच्चे ने दूध का पात्र गिरा दिया तो माँ ने उसे डांट लगाई लेकिन बालक को डांट लगाने से पहले ही यदि बच्चे को ठोकर खाकर स्वयं ही चोट लग गई है तो दूध या सामान टूटने के बाद भी उस दुःखी बालक को माँ डांटती नहीं, बल्कि प्रेम दुलार करती है ऐसा ही देखा जाता है। यह तो लौकिक न्याय है। लेकिन ईश्वर भी माँ की तरह ही है जो दु:ख उठाने पर पाप कर्माशय कम कर देता है।
7. कर्मों का फल तात्कालिक दीर्घकालीक व जन्मांतर में देता है।
सभी कर्मों का फल ईश्वर तत्काल नहीं देता। कुछ कर्मों का फल व्यवस्था चलाने के लिए तुरंत, कुछ का फल लंबे समय बाद इसी जीवन में तथा कुछ बचे हुए कर्मों का फल जन्मांतर में अर्थात अगले जन्म में देता है। लेकिन ऐसा कोई कर्म नहीं कि बिना भोगे ही समाप्त हो जाए। "अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्म शुभाशुभम्" किए गए शुभ या अशुभ कर्म को अवश्य ही भोगना पड़ता है। महर्षि व्यास जी कहते हैं कि जैसे हजारों गायों के बीच में बछड़ा अपनी माँ को ढूंढ ही लेता है, वैसे ही भले ही सहस्त्र कोटि जन्म बीत जाने पर भी कर्म से पीछा नहीं छूटता। वह करने वाले के पीछे-पीछे बछडे की तरह चलता रहता है जब तक कि उसको भोग न लिया जाए।
कौन से कर्मों का फल इसी वर्तमान जन्म में मिलता है?
योगदर्शन भाष्यकार महर्षि व्यास जी के अनुसार अति प्रयत्न द्वारा ईश्वर या देवों की उपासना, मंत्र, तप, समाधि और महान या श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा से उत्पन्न हुए धर्म का फल सुख, साधन आदि के रूप में इसी जन्म में प्राप्त हो जाता है। यह पुण्य कर्माशय शीघ्र फल देने वाला होता है। इस तरह इसी दृष्ट वर्तमान जन्म में प्राप्त फल को "दृष्टजन्मवेदनीय" कहते हैं। तथा इसके विपरीत तीव्र क्लेश से किसी भयभीत, रोगी, कृपापात्र को पीडा देने, अपमान करने तथा सरल व्यक्तियो के साथ विश्वासघात से और महान तपस्वियों के अपमान करने, उन्हें दुख पहुँचाने या उनकी हत्या करने से उत्पन्न हुए अधर्म का फल भी इसी वर्तमान जन्म में मिलता है। यह भी "दृष्टजन्मवेदनीय" कहलाता है। ऐसे पापों का फल भी शीघ्र ही मिल जाता है। उदाहरण के लिए जैसे नंदीश्वर कुमार ने योग समाधि प्राप्त कर देवत्व प्राप्त किया। इसी प्रकार नहुष देवों का राजा था, किंतु ऋषि महर्षियों के अपकार करने के पाप से अपनी ऊंची स्थिति को छोड़कर निम्न स्थिति को प्राप्त हो गया।
कुछ कर्मों का फल शीघ्र ही मिल जाता है और कुछ कर्मों का देर से। जैसे किसी ने बहुत सारे व्यक्तियों के जीवन की रक्षा की, प्राणियों की रक्षा की तो राजा ने पुरस्कार के रुप में उसको कर्मों का फल तत्काल दे दिया। पिछले वर्ष भी प्रधानमंत्री जी ने एक जलती हुई बस में से बच्चों को बचाने के लिए एक युवा को पुरस्कृत किया था। इसके विपरीत कोई हिंसा करता है या बलात्कार, हत्या आदि जघन्य अपराध कर देता है तो उसको भी अविलंब ईश्वर, राजा या प्रजा के द्वारा उसके पाप कर्म का फल इसी जन्म में शीघ्र ही दे देता है। जैसे 2 वर्ष पूर्व हैदराबाद में एक निर्दोष महिला डॉक्टर की जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई तो कुछ समय में ही अपराधियों को पुलिस ने मार दिया था। यह ईश्वर की प्रेरणा के बिना नहीं हो सकता था। जब सारा देश ईश्वर की प्रेरणा से किसी अच्छे या बुरे कार्य का बड़ा सम्मान, सहयोग या विरोध करता है तो उसका कर्माशय शीघ्र फल देने वाला बन जाता है।
कौन से कर्मों का फल देर से मिलता है?
जो कर्म विपाक को प्राप्त नहीं हुए हैं अर्थात जिसका फल प्राप्ति का समय नहीं आया है वह कुछ समय बाद फल देने के लिए प्रवृत्त होते हैं। कुछ कर्मों का फल तो तुरंत ही मिल गया जैसे किसी ने चोरी की और पुलिस ने उसे जेल में बंधक बना लिया लेकिन कुछ फल थोड़ा देर से मिलते हैं जैसे किसी ने एमबीबीएस किया और उसको चिकित्सा अधिकारी का पद मिला यह थोड़ा सा दीर्घ समय लगा इससे भी अधिक किसी ने 60 वर्ष आयु तक सरकार की नौकरी या सेवा की तो पेंशन के रूप में उसे फल दीर्घकाल में मिला। इसी प्रकार किसी ने चोरी की, भ्रष्टाचार किया और दस वर्षों तक पकड़ा नहीं गया, लेकिन बाद में पकड में आ गया तब थोड़ा देर से दंड मिल गया, लेकिन भागने का अलग से जुर्माना लगाकर ओर अधिक दंड दिया जाता है।यहाँ पर यह जानना आवश्यक है कि संसार में जो भी सुख, दु:ख, दंड या पुरस्कार मिलता है, वह अपने ही कर्मों का फल नहीं होता। चोर आदि के द्वारा जो दु:ख होता है वह अपने कर्मों का फल नहीं है, क्योंकि उस दु:ख को चोरी करने वाले ने अपने स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए अपनी ओर से दिया है। इस दुःख का कारण दुःख भोगने वाले का अपना कर्म नहीं है।
इसी तरह कोई व्यक्ति अन्यायपूर्वक या न्यायपूर्वक भी धन-संपत्ति उपार्जित करके किसी को सुख सुविधाएँ देता है तो सुखी व्यक्ति का वह सुख स्वयं के कर्मों का फल नहीं है। इसलिए जो जिसका जितना-जितना शुभ-अशुभ कर्म किया है उसको उतना ही सुख-दु:ख देना कर्मों का फल है। इसके विरुद्ध न्याय और अन्याय से भी दुनिया में सुख या दु:ख मिलता है वह उसके अपने कर्मों का फल नहीं है। इसलिए किसी रोगी, दुःखी, विकलांग या दरिद्र को देखकर कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि यह दु:ख इसके कर्मों का फल है। हो सकता है वह किसी दूसरे के कर्मों का परिणाम हो, उसके साथ अन्याय हुआ हो। जिसका न्याय व क्षतिपूर्ति ईश्वर भविष्य में कर ही देगा। इसलिए दुर्घटना आदि में मृत्यु होने पर, कैंसर, हार्ट अटैक आदि से पीड़ित को देखकर यह नहीं कहना चाहिए कि इसके कर्मों का फल है। वह अन्याय पूर्वक किसी अन्य प्राणी या मनुष्य से भी मिला हो सकता है जिसमें उस पीड़ित का कोई दोष नहीं, जैसे आजकल कोई सदाचारी व्यक्ति भी यदि भोजन करता है तो पूर्ण सावधानी के उपरांत भी मिलावटखोरों के कारण, खेतों में विष आदि के प्रभाव से किसी को भी शारीरिक हानि हो सकती है जिसमें उस व्यक्ति का कोई दोष नहीं है। इसके विपरीत किसी सुखी संपन्न व्यक्ति को देखकर भी यह नहीं कहा जा सकता कि यह सुख या समर्थ संपन्नता इसी व्यक्ति के कर्म से हैं। हो सकता है किसी दूसरे के कर्म का परिणाम हो। अन्याय पूर्वक भी और न्याय पूर्वक भी किसी से भी सुख या दु:ख मिल सकता है।
कुछ कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिलता-
जैसे किसी ने बहुत ऐसे निष्काम कर्म कर डाले जिन का फल उसे इस जन्म में नहीं दिया जा सके तो वैसा शरीर, वैसी बुद्धि, वैसे माता-पिता व धन-संपत्ति आदि आगे के जन्म के लिए संचित हो जाते हैं। इसलिए उन कर्मों को जिन का फल अगले जन्म में मिलता है या जन्मांतर में मिलता है उन्हें "अदृष्ट जन्मवेदनीय" कहते हैं। अर्थात इस जन्म में उन कर्मों का फल नहीं मिलता आगे के लिए वह संचित हो जाता है अर्थात अकाउंट में जमा रहता है।
इसके विपरीत किसी ऐसे कर्म का फल भी जो विरुद्ध आचरण के कर्म द्वारा प्रेरित हुआ हो उसका फल भी "अदृष्ट जन्मवेदनीय" जन्म होता है। जैसे किसी को इस जीवन के पाप कर्मों का फल दंड के रूप में सूअर, गधा, घोड़ा, कुत्ता, बिल्ली आदि का शरीर मिलना ईश्वर से अभीष्ट है अर्थात ईश्वर द्वारा दिया जाना निश्चित/ तय है तो वह तो भावी/आगे जन्म/ जन्मांतर में ही मिलेगा क्योंकि यह जन्म या शरीर तो पिछले कर्म का फल है। इस जीवन की समाप्ति होने के बाद ही तो मिलेगा। जैसे कोई अपनी पिछली कमाई का अभी बैठकर खा रहा है तो उसमें दोष नहीं लेकिन जब अभी ऋण बन गया तो आगे चुकता करना ही पड़ेगा।
इस जन्म के कर्मों से अगले जन्म का निर्धारण होगा कि यह मनुष्य आगे जन्म में कुत्ता, बिल्ली, कीड़े, मकोड़े के शरीर में जाएगा या स्वस्थ सुंदर मनुष्य ही बनेगा या मुक्ति में होगा।
8. कर्मों का फल जाति(शरीर), आयु एवं भोग (सुख-दु:ख भोगने के साधन) के रूप में मिलता है।
जिन कर्मों के मूल में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश पांच क्लेश विद्यमान हो तो उन शुभ-अशुभ कर्मों का ही धर्म-अधर्म रूपी कर्माशय बनता है। उसका फल ही जाति, आयु तथा भोग होता है।
जन्म का नाम "जाति" है अर्थात् गाय, घोडा, कबूतर, खरगोश, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न जाति है।
उन जन्मे शरीरों के जीवनकाल का नाम "आयु" है। जैसे कबूतर का जीवनकाल, मनुष्य का जीवनकाल आदि। मनुष्यों में भी किसे कितना जीवनकाल ईश्वर की ओर से प्राप्त है- यह भी कर्म पर आधारित है। यह अलग बात है कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त निश्चित आयु को निश्चित सीमा तक आगे बढ़ाने या समाप्त करने की स्वतन्त्रता जीव को है।
सुख-दु:ख के हेतु शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध विषयों की प्राप्ति का नाम "भोग" है अर्थात जो भी सुख व सुख के साधन है, जो दु:ख व दु:ख के साधन है वह "भोग" है। जैसे कोई निर्धन घर में तो कोई संपन्न घर में जन्म लेता है। कोई बुद्धिमान तो कोई न्यून बुद्धि वाले होते हैं। यह कर्म आधारित न्याय व्यवस्था है लेकिन निर्धन घर में जन्म लेकर भी व्यक्ति ऊंचा उठ सकता है और ऊंचे घर में जन्म लेकर दरिद्र हो सकता है, बुद्धिमान होकर भी मूर्खता के कार्य कर सकता है और मूर्ख हो कर भी बुद्धि को बढ़ाकर शुद्ध कर्म कर सकता है। यह स्वतंत्रता है।
जन्म आयु और भोग साधन इन तीनों को प्रारब्ध कहते हैं। सुख-दु:ख के हेतु शुभ-अशुभ कर्म से उत्पन्न धर्म-अधर्म का नाम "कर्माशय" है। जिस धर्म-अधर्म का फल वर्तमान में भोगा जाए उसका नाम "दृष्टजन्मवेदनीय" है। और जिसका भावी जन्म में भोगा जाए उसका नाम "अदृष्ट जन्मवेदनीय" है।
9. किसी के साथ अन्याय होने पर वह न्याय करता है और उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है और अन्याय करने वाले को दंड देता है।
यह कितनी सुंदर व्यवस्था है कि यदि किसी के साथ अन्याय होता है तो भी उसे परेशान या दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कोई महान सर्वशक्तिमान न्यायकारी न्याय के लिए जगत में सर्वदा विद्यमान हैं। आधिभौतिक दु:ख आने पर ईश्वर उसकी भरपाई कर देता है तथा जितना दु:ख किसी को निर्दोष अवस्था में किसी अन्य के द्वारा मिल गया है तो उसकी क्षतिपूर्ति ईश्वर उसे शरीर, ज्ञान, बल, साधन आदि सुख देकर पूर्ण न्याय कर देता है और अन्याय करने वाले को दंड देता है। कर्मफल की इस सुंदर व्यवस्था को समझने के लिए आपको कर्म का फल, कर्म का परिणाम और कर्म का प्रभाव क्या है व कैसे न्याय होता है इसको समझना पड़ेगा।
कर्म का फल - इसके अनुसार कर्म के कर्ता को जो न्याय पूर्वक ईश्वर के द्वारा सुख-दु:ख या सुख-दु:ख के साधन के रूप में प्राप्त होता है उसे कर्म का फल कहते हैं - जैसे पंच महायज्ञ करना कर्म है और इसका फल अच्छे धार्मिक, सदाचारी, समर्थ, समृद्ध, विद्वान माता-पिता के घर में मनुष्य का जन्म प्राप्त होना है।
कर्म का परिणाम व प्रभाव कर्म के कर्ता व अन्य पर भी हो सकता है। किसी कर्म के कर्ता के कर्म से किसी अन्य को अन्यायपूर्वक सुख-दु:ख मिलता है तो वह कर्म का फल नहीं बल्कि कर्म का परिणाम या प्रभाव होता है। कर्म का फल न्यायपूर्वक ईश्वर की ओर से कर्म के कर्ता को ही मिलता है अन्य को नहीं, लेकिन कहीं-कहीं सामूहिक कर्मों का सामूहिक फल भी मिलता है। जैसे किसी ने अकेले तो नहीं किया, लेकिन सभी ने मिलकर साथ-साथ कोई बहुत अच्छा या बुरा पुण्य या पाप किया तो उसका फल भी सामूहिक अर्थात सभी को मिलने वाला है।
10. उसकी आज्ञानुसार अर्थात् वेदानुकूल आचरण करने वाले मनुष्यों को ईश्वर मुक्ति अर्थात् मोक्ष प्रदान करता है।
विवेकज्ञान/तत्वज्ञान या यथार्थ ज्ञान होने से अविद्या नहीं रहती। अविद्या से उत्पन्न राग, द्वेष आदि क्लेश भी नहीं रहते, क्लेशों के हटने से सभी वासनाओं का नाश हो जाता है और भुने हुए चने की तरह पुनः अंकुरण नहीं होता। जब कर्मों के मूल/जड में क्लेश नहीं रहे तो भले ही कितने भी कर्म संचित है वे फल नहीं देंगे, क्योंकि मूल(जड) के कट जाने से शाखा का फल देना असंभव है। अतः अपने मूलभूत अविद्या आदि क्लेशों के विद्यमान होने पर ही धर्म-अधर्म का कर्माशय जन्म आदि के रूप में फल दे सकता है अन्यथा नहीं। जैसे तन्दुल, तुषों के विद्यमान होने पर ही अंकुर देने में समर्थ होते हैं, तुषा रहित चावल अंकुरित नही होते। वैसे ही अविद्या आदि क्लेशों के विद्यमान होने पर ही कर्माशय उक्त फल के उत्पादन करने में समर्थ होते हैं अन्यथा नहीं। इसलिए क्लेशों के निवृत्त होने पर कदापि कर्माशय फल का आरंभ नहीं कर सकता।
इसी का नाम दग्धबीज अवस्था है। जीवन मुक्त योगी की इस शरीर के साथ यात्रा पूर्ण हो जाती है, "प्राप्तं प्रापणीयम्" अर्थात जो प्राप्त करना था वह कर लिया, कोई कामना शेष नहीं रही, किन्तु ध्यान रहे योगी ऐसी स्थिति प्राप्त कर स्वयं शरीर समाप्त नहीं करेगा। "चक्रभ्रमणवत्" कुम्हार के चाक की तरह जितना वेग संस्कार देकर चक्र घुमाया गया है वह वेग संस्कार कुछ समय बाद समाप्त होने से स्वत: ही चाक बंद हो जाएगा। जब यह जीवन रूक जाता है तो फिर उसका जन्म नहीं होता। यही मोक्ष या मुक्ति है। जिसमें कोई कर्म व कर्म की वासनाएँ शेष नहीं रह जाती।
यही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। जिसका साधन मानव शरीर है। इस मुक्ति को देने वाला ईश्वर है जो वेदानुकूल आचरण से योग्यता होने के बाद अधिकारी को ही मोक्ष देता है अन्य को नहीं। अन्य सभी को जन्म-मृत्यु से निरंतर गुजरना पड़ता है।
यदि आपको इतना पढ़ने समझने पर भी कर्मफल ओर न्याय व्यवस्था पर कोई प्रश्न या भ्रान्ति, ईश्वर विश्वास की कमी है तो पुनः पढ़ें, ओर समझ न आने पर हमें संपर्क सूत्र/मैसेज आदि के माध्यम से अपना नाम टाइप करें, शंका समाधान कर सकते हैं।
अध्यात्म पथ पर अग्रसर होने व ईश्वर प्राप्ति हेतु योगदर्शन का अध्ययन करें।