मन (Mind)
मनुष्य जिसके द्वारा मनन करता है वह मन है। मन सूक्ष्म है और अणु परिमाण वाला होता है।
मन का स्वभाव/कार्य (Nature of mind)
मन जड़ है अर्थात् प्रकृति से बना है। यह आत्मा का साधन है। त्रिगुणात्मक है। आत्मा और बाहरी इंद्रियों के मध्य कार्य करता है। यह आत्मा व इन्द्रियों के मध्य मीडिएटर(मध्यस्थ) का कार्य करता है। विचार उत्पन्न करना, चिंतन, मनन करना भी मन का कार्य है। सार-असार विचारने का कार्य, तर्क, वितर्क, कुतर्क भी मन ही करता है।
मन न लगना, अरुचि या मन की चंचलता के कारण (Reasons for disinterest or restlessness of mind)
मन इसलिए नहीं लगता, क्योंकि जहाँ हम लाभ देखते हैं या सुख देखते हैं वहीं पर हमारी रुचि हो जाती है। उसी ओर आत्मा मन को विचारने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए मन लगने का संबंध हमारी रुचि से है। और रुचि वही होती है जहाँ सुख या लाभ दिखे। इसलिए यदि आपको किसी जगह पर मन को लगाना है, तो वहाँ पर सुख और लाभ देखना चाहिए और यदि कहीं से मन को हटाना है तो वहाँ पर दुःख और हानि देखनी चाहिए।
मन की चंचलता का कारण मन के अंदर रजोगुण उत्पन्न करना या बढ़ा देना है। इसमें हमारी अज्ञानता के कारण दिनचर्या, आहार-विहार, वाणी-व्यवहार सब का प्रभाव पड़ता है। इसलिए चंचलता का कोई एक कारण नहीं है अपितु बहुत सारे कारण हैं। उसमें मुख्य कारण है हमारे राजसिक अशुद्ध आहार और इंद्रियों के द्वारा भोगे जाने वाले विषयों के प्रति आसक्ति।
मन जड़ है या चेतन (Mind is matter or conscious)
मन एक यंत्र है जो सूक्ष्म है और आत्मा का साधन है। यह चेतन नहीं है जड़ है। चेतन तो आत्मा है। आत्मा के ज्ञान और संस्कारों के कारण ही यह कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक विचार उत्पन्न करता है। इसलिए मन का कोई दोष नहीं है। मन तो एक यंत्र मात्र है। दोष हमारी अविद्या, अज्ञानता के कारण मन को की गई प्रेरणा है।
मन को चलाने वाला कौन? (Who drives the mind?)
मन को चलाने वाला चेतन अर्थात आत्मा यानी कि हम स्वयं है। मन तो एक यंत्र है। जैसे हम पेन के द्वारा लिखते हैं वैसे ही मन के द्वारा विचार उत्पन्न करते हैं। पेन स्थूल यंत्र है मन सूक्ष्म है अंदर रहता है। तो जिस प्रकार गलत लिखने पर हम पेन को दोष नहीं देते, उसी प्रकार गलत विचार आने पर मन को दोष नहीं देना चाहिए। दोष तो हमारा है। हमने मन में ऐसा विचार उत्पन्न क्यूं किया? अपनी अविद्या अपने गलत संस्कारों के कारण से।
क्या मन इधर-उधर जाता है? (Does the mind move here and there?)
मन शरीर से निकलकर इधर-उधर नहीं जाता। वह अपने स्थान पर ही रहता है। हाँ हम मन में इधर-उधर के संकल्प-विकल्प उठाते हैं। इसीलिए इसको मन की चंचलता बोल देते हैं। यह मन कहीं बाहर नहीं जाता जैसे कि मोबाइल, रेडियो की तरंगे इधर से उधर चली जाती है। इस तरह मन की कोई भौतिक तरंगें नहीं होती। मन कहीं नहीं जाता। वह स्वरूप से स्थिर है। अपनी जगह है। केवल वहाँ पर दूर-दूर के विचार आते रहते हैं। जो हमने पहले अनुभूति की है, देखा है, सुना है, जाना है, पढा है उन सब के संकल्प-विकल्प उठने से उन सब की स्मृतियाँ बार-बार आने से हम यह समझ लेते हैं कि मन वहाँ चला गया, यहाँ आ गया।
मन की पांच अवस्थाएँ (Five states of mind)
मन की पांच अवस्थाएँ होती है जो योग दर्शन में महर्षि व्यास जी ने भाष्य में लिखा है-
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क्षिप्त (चंचल अवस्था)
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मूढ अवस्था
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विक्षिप्त
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एकाग्र
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निरुद्ध
क्षिप्त अवस्था - मन की जो विविध विषयों के ग्रहण में अति तीव्र गति है, जिसमें चित्त अल्पकाल में ही अनेक विषयों को ग्रहण कर लेता है उसे क्षिप्त अवस्था कहते हैं। इसमें जो विषय मन में आ रहे हैं उनको ग्रहण करने वाला जीवको यह पता भी नहीं चलता कि कब, किस समय, कौन सा विषय ग्रहण किया गया है। जैसे कि एक बालक को एक खिलौना दे दिया जाए तो वह बालक उस खिलौने को छोड़कर निकट में ही अन्य दूसरे खिलौने उठा लेता है। यदि उस बालक के आसपास में अन्य वस्तुएँ विद्यमान है तो उन वस्तुओं को भी लेने का प्रयास करता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति का मन इसी प्रकार चंचल होता है और ऐसा मन व्यक्ति के अधिकार से प्राय: बाहर हो जाता है। इसी का नाम मन की चंचल अवस्था है।
मूढ अवस्था - इसका अर्थ है मूर्छित अवस्था या निद्रा अवस्था। जब व्यक्ति को किसी भी विषय का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता अथवा अत्यंत अल्प अनुभूति रहती है, कोई विशेष ज्ञान नहीं होता। ऐसी सभी बेहोशी की अवस्थाओं को मूढ अवस्था में गिना जाता है।
विक्षिप्त अवस्था - जब साधक परमेश्वर के नाम अथवा किसी अन्य वेद मंत्र के माध्यम से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता है तब किसी बाहर के कारण से अथवा आंतरिक कारण से मन की एकाग्रता भंग हो जाती है। ऐसी अवस्था को विक्षिप्त अवस्था कहते हैं। जैसे कि एकांत शांत वातावरण में रखे हुए दीपक की लौ वायु के कारण टेढ़ी हो जाती है वैसे ही चित्त की एकाग्रता को भंग करने वाले बाह्य इंद्रियों के विषय तथा अंदर चित्त की विषयों की स्मृति भी एकाग्रता को भंग करने में कारण बन जाती है। इसी प्रकार से निद्रा और आलस्य भी एकाग्रता को भंग करने में कारण है। जब कोई साधक ईश्वर का ध्यान करता है तो उसकी स्थिति ठीक होती है। इस अवस्था में बाहर से एक ऊंची ध्वनि सुनाई देती है उस ध्वनि के कारण चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है। इस प्रकार से आँख खोलकर ध्यान करने में रूप अथवा दृश्य भी एकाग्रता को भंग कर देते हैं। जब योगाभ्यासी ध्यान करता है तो पूर्व में अनुभव किए गए विषय को स्मरण करता रहता है। उससे भी चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है। जैसे किसी व्यक्ति ने 20 वर्ष पूर्व बहुत अच्छा स्वादिष्ट भोजन बार-बार तल्लीन होकर खाया था उसी स्वादिष्ट भोजन की साधक को ध्यान की अवस्था में स्मृति आने से चित्त की एकाग्रता भंग हो जाएगी। ऐसी अवस्था को विक्षिप्त अवस्था कहते हैं।
एकाग्र अवस्था - जब योगाभ्यासी व्यक्ति यम, नियम आदि योग के अंगो का पूरी शक्ति से पालन करता है और निष्काम भावना से अन्य प्राणियों का उपकार करता हुआ विवेक वैराग्य को प्राप्त कर लेता है तो मन पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करके बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी वस्तु में अपनी इच्छा के अनुसार लंबे समय तक मन को ठहराने में सक्षम और समर्थ हो जाता है। इस अवस्था में बाह्य और आंतरिक रूप से चित्त की एकाग्रता को भंग करने वाली बाधा को वह रोकने में सफल हो जाता है। इस अवस्था में साधक निर्भय हो जाता है और बुद्धि के स्तर पर शांत एवं खाली अवस्था का अनुभव करता है। इस अवस्था में साधक यह भी अनुभव करता है कि मैं एक कारागार से छूटकर स्वतंत्रता के आकाश में पहुँच गया हूँ। इस अवस्था का नाम एकाग्रता है। इसे योग दर्शन में संप्रज्ञात समाधि भी कहते हैं।
निरूद्ध अवस्था - यह एकाग्रता के पश्चात पांचवी निरुद्ध अवस्था है। जब साधक एकाग्रता का अभ्यास करते-करते परमात्मा का अनुभव करने लगता है तो उस साधक को विशिष्ट ज्ञान के कारण एकाग्र अवस्था में भी दोष दिखने लगते हैं। उन दोषों के कारण एकाग्र अवस्था से भी वैराग्य हो जाता है अर्थात उसको भी वह छोड़ देता है। ईश्वर के स्वरूप में मग्न हो जाता है, डूब जाता है। इस अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार होता है और नित्य आनंद की प्राप्ति होती है। इस स्थिति को प्राप्त करके योगाभ्यासी यह अनुभव करता है कि मुझे जो प्राप्त करना था वह कर लिया है अब कोई भी ऐसी वस्तु शेष नहीं बची जिसे प्राप्त करके मैं इस आनंद से और अधिक आनंद का अनुभव करूंगा। ईश्वर में अनंत आनंद है और ईश्वर को छोड़कर किसी भी वस्तु में ईश्वर जैसा आनंद नहीं है। जीव में आनंद है ही नहीं और जो प्रकृति में अथवा प्रकृति से बनी हुई वस्तुओं में जो सुख है वह भी क्षणिक है और दु:ख मिश्रित है। इस कारण साधक यह अनुभव करता है कि अब कोई और वस्तु प्राप्त करने योग्य नहीं है। ईश्वर के इस नित्यानंद को प्राप्त करने पर व्यक्ति की संपूर्ण इच्छाएँ पूरी हो जाती है। अन्य कोई भी साधन संसार में ऐसा नहीं है जो कि समस्त कामनाओं को पूरा कर सकें।
इन पांचों अवस्थाओं का ज्ञान होने पर साधक जिस अवस्था को हानिकारक समझता है उसे रोक देता है और जिसको लाभप्रद समझता है उसको बनाए रखता है। मनुष्य का पूर्ण कल्याण करने वाली तो निरूद्ध अवस्था ही है क्योंकि इस अवस्था में ही समस्त कलेशों का नाश और दु:ख रहित नित्य आनंद की उपलब्धि होती है। योग की ऊंची और परिपक्व स्थिति हो जाने पर योगाभ्यासी पूर्ण दैनिक जीवन में इस अवस्था को बनाए रखने में सफल हो जाता है। यही मानव का वास्तविक जीवन है। इससे भिन्न किसी भी प्रकार के जीवन को सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस अवस्था में सभी बंधनों का नाश और वास्तविक स्वतंत्रता है जो अन्य किसी भी जीवन में उपलब्ध नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस अवस्था को प्राप्त करने के बाद योगी सोएगा नहीं खाएगा नहीं। निद्रा की समाप्ति के बाद योगी पुन: निरुद्ध अवस्था में रहता है फिर ईश्वर के आनंद को अनुभव करता है। योगी सोने की इच्छा नहीं करता, परंतु शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उसे सोना पड़ता है। शरीर को चलाने के लिए उसे खाना पड़ता है। लेकिन वह इच्छा करके ऐसा नहीं करता। भोगने की दृष्टि से नहीं।
मन व शरीर का संबंध (Relationship between mind and body )
मन सूक्ष्म शरीर का हिस्सा है। जबकि शरीर स्थूल है। यह अन्नमय कोश है। सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर का आधार होता है। बिना मन के शरीर में इंद्रियाँ आत्मा तक अपना संदेश नहीं पहुँचा सकते। इसलिए मन शरीर के सभी अवयवों के संदेश आत्मा तक पहुँचाने का माध्यम है।