🌷परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
इस श्रृंखला के पिछले भागो में आपने अभी तक पढ़ा कि ईश्वर से प्रार्थना करने से वह सुनता है। ईश्वर मन में जो प्रेरणा करता है, उसे हमें सुनना नहीं आता। वह दयालू सब पर दया बराबर करता है, लेकिन उस न्यायकारी की कृपा के पात्र सब नहीं है।
उसकी प्रार्थना करने से सभी अपने जीवन में सुख, शांति, निर्भयता, आत्मविश्वास, उत्साह, पवित्रता, संतोष आदि गुणों को प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन उसकी विशेष कृपा व प्रेम के अधिकारी सब नहीं।
ईश्वर को मान लेने मात्र से उसके विशेष प्रेम के अधिकारी नहीं बन सकते। उसे विद्वानो से श्रद्धा से, बुद्धिपूर्वक जानना होगा फिर वैसा ही मानना होगा जैसा वो है और फिर अपने अंदर खोजना होगा।
अब आगे...
मान लेने से समस्या का समाधान नहीं हो जाता। माना कि ईश्वर है! तो उसे मानने से आपको क्या लाभ हुआ?
क्या उससे व्यवहार किया?
नहीं!
आप मान लो गाय का दूध बहुत अच्छा होता है, स्वास्थ्यवर्धक व ऊर्जा प्रदान करता है। अब आप गाय को मत खोजो! उसे मत चारा डालों, मत दूध निकालो! गाय से कोई व्यवहार मत करों! क्या दूध मिल जायेगा?
ईश्वर को मान तो इसलिए लिया कि सारा संसार कह रहा है। सब माता-पिता, विद्वान व ऋषि-मुनि कह रहे हैं कि वही सर्वरक्षक है।
इसलिए मानने में क्या घाटा है? न मानने से नास्तिक कहलाएंगे, पाप लगेगा! इसलिए डरकर मान ही लेते हैं! न मानने से कहीं कोई अनिष्ट न हो जाए। इसलिए मानना पडा कि बचपन से सुनते आ रहे हैं भगवान है! भगवान हैं! वह सबको देख रहा है, यह मत करों पाप लगेगा, नरक में जाओगे, यह करों पुण्य होगा भगवान रक्षा करेंगे, स्वर्ग व अच्छा जन्म मिलेगा! चींटी पर पैर नहीं रखना, भगवान से डरो! तब आप बच्चें थे, मन में बैठ गया, इंकार नहीं कर सकें, माँं ने जबरदस्ती कान पकड़कर पूजा, अर्चना, प्रार्थना में बैठा दिया, रोज शिवालय ले जाती थी, स्कूल में भी शिक्षकों ने "वह शक्ति हमें दो दयानिधे..." बलपूर्वक पंक्ति में खड़ा करके गाने को विवश ही किया। गुरूजीयों के सत्संग में भगवान की जय-जयकार करते-करते गला बैठ गया तो मन में भी भगवान बैठ गया। परिवार में कोई दुर्घटना, रोग आदि सकंट आता था, तो सब भगवान जी से प्रार्थना करते दिखते थे।
जब थोडे बड़े हुए तो परीक्षा के रिजल्ट के समय एक भगवान जी ही थे जो परीक्षक से अधिक अंक प्राप्त करने में सहायक हो सकते! कई बार विश्वास भी टूटा लेकिन अगली बार फिर परीक्षा आयेगी यह सोचकर आगे भी काम पडेगा इसलिए भगवान को नहीं मानने का कोई प्रश्न ही नहीं था! इसलिए अब मान ही लिया। हाँं! भगवान जी होते हैं। लेकिन खोजने की बात तो मन में कभी आई ही नहीं?
चलों! कोई बात नहीं! अब खोज शुरू करते हैं...
क्रमशः...
आचार्य लोकेन्द्र:
Comments