मैंने यह एक विशेष श्रृंखला शुरू की है जो गीता के एक श्लोक की वेदानुकूल विस्तृत व्याख्या के रूप में आप पढ़ व समझ सकेंगे। मुझे नहीं मालूम कि श्री कृष्ण के इस संदेश को संसार में किसी ने इस तरह से पहले कभी प्रस्तुत किया या नहीं! क्योंकि विश्व में सर्वाधिक टीकाये या व्याख्यायें श्रीमद्भागवत गीता पर ही की गई है।
मैंने इस बात का कभी वचन नही दिया कि यह अंतिम व्याख्या है। व्यक्तिगत स्तर पर मैं भी बिल्कुल आपके जैसा सामान्य मनुष्य ही हूं मुझमें भी राग, द्वेष, प्रेम आदि मिश्रित भावनायें निहित है। लेकिन जब बात सत्य असत्य की हो तब हमें संसार के लोगों की बातों को नहीं, बल्कि ईश्वर की प्रेरणा को ध्यान में रखकर अपनी बात को आरम्भ करना चाहिए।
✍️ आचार्य लोकेन्द्र:
🌷परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
प्राय: संसार के आस्तिक लोग अविद्या से उत्पन्न हुए जरा (वृद्धावस्था), व्याधि (रोग) व मृत्यु आदि दु:खों, क्लेशो, बाधाओं से भयभीत होकर व जीवन में सफलता, उन्नति, समृद्धि के लिए ईश्वर से सहायता के लिए प्रार्थना करते हैं, करनी भी चाहिए। वेदों में भी सब प्रार्थनाएं पूर्ण करने का संकल्प ईश्वर ने किया है। ईश्वर आपकी प्रार्थनाएं शत प्रतिशत ठीक-ठीक सुनता है, वह बहरा मनुष्य नहीं है,अन्तर्यामी हैं। आप मन में बिना बोले भी प्रार्थना करते हैं तो भी सब कुछ सुनता है, सबकी सुनता है, लेकिन सुनकर भी सबकी बात तो मानता नहीं, सबकी प्रार्थना या इच्छा पूर्ण होती हो ऐसा तो नहीं दिखता। किसी-किसी की प्रार्थना सुनकर पूर्ण भी कर देता है। लेकिन सबकी नहीं। पक्षपाती भी नहीं है। इतना सब मानते हैं कि न्यायकारी है।
ईश्वर किसकी प्रार्थना या इच्छा पूरी करता है? और किसकी प्रार्थना या इच्छा पूरी नहीं करता?
ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी होने से सभी को सब जगह, सब समय सुनता है, देखता व जानता है तब प्रार्थना भी सबकी सुनता है, सुनकर सहायता या रक्षा भी करता है, लेकिन किसकी कितनी सहायता व रक्षा करता है? और कैसे करता है? क्योंकि वह दयालू माँ-पिता की तरह है, लेकिन न्यायकारी है। "न्यायकारी" इस शब्द पर ध्यान दीजिए। न्याय कहते उसी को है जिसमें यथायोग्य धर्मानुसार व्यवहार हो, ठीक-ठीक, न कम न अधिक। प्रार्थना करने वालों के मन में प्रेरणा करके वो सभी की रक्षा करता है और निर्भयता, उत्साह, संतोष, विश्वास आदि गुणों को भी देता है। लेकिन उसकी प्रेरणा कोई न सुनें तो वो क्या करे?
ईश्वर आपकी प्रार्थना सुनता है, लेकिन सुनने के बाद वह क्या कहता है? कैसे सहायता करता है? उसे आप नहीं सुनते और सुनना भी नहीं चाहते। कैसा विचित्र संसार है कि हम किसी से सहायता प्राप्त करना चाहते हैं, उससे अपने जीवन के संकटों का समाधान जानना चाहते हैं, लेकिन वह हमें उपाय बताए तो उसकी सुनते ही नहीं है। यह ऐसे ही है जैसे कोई विद्यार्थी किसी शिक्षक से प्रश्न तो करें और समाधान या उत्तर न सुनें।
फिर समस्या क्यों उठाई? क्यों प्रश्न पूछा? क्यों प्रार्थना की? जब उत्तर व समाधान सुनना ही नहीं था।
सबसे बड़ी चुनौती यह है कि प्रार्थना में ईश्वर आपकी बात तो सुनता है, लेकिन एक ऐसी प्रक्रिया या अवस्था भी है, जिसे आप नहीं जानते, जिसमें आप ईश्वर की बात सुनते हैं। उसे ध्यान या समाधि के नाम से जाना जाता है। ध्यान समाधि से जीवन के हर संकट का समाधान मिलता है। आप तो ईश्वर को अपनी बात मन में कह देते हैं वो सुन लेता है लेकिन ईश्वर आपके मन में जो कहता है उसे आप नहीं सुनते और न ही सुनना चाहते।
ईश्वर आपकी सुनता है लेकिन आप उसको नही सुनते कि वह क्या कह रहा है....
क्रमशः...
आचार्य लोकेन्द्र:
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