🌷परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
इस श्रृंखला (सीरीज) के आगे के भाग में, ईश्वर की विशेष कृपा पाने के लिए क्या करें? वह सबकी रक्षा किस तरह से कर रहा है आदि आप पढ़ चुके हैं अब आगे...
हम सब ऐसा क्या करें कि ईश्वर हमारी रक्षा करें!
ईश्वर आप हमारी रक्षा करों, हमें यह कहना ही न पड़े, बस ईश्वर हमें अपना लें। तब कहने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।
संसार के लोग आपको कब ओर क्यों अपनाते हैं? जब आपके गुणों से किसी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कोई लाभ या सुख, शान्ति मिल रही हो, तब आप किसी के प्रिय बन जाते हैं। ऐसे ही किसी के गुण, स्वभाव आदि से प्रभावित होकर आप किसी को चाहते हैं, कोई आपका प्रिय बन जाता है।
लेकिन ईश्वर तो ऐसा नहीं है कि उसे आपसे कुछ लाभ या सुख, शान्ति, स्वास्थ्य, आनंद मिलेगा। आप ईश्वर को प्रेम करेंगे तो ईश्वर को बहुत अच्छा लगेगा, जैसे कि आपके प्रेम न करने पर भगवान जी उदास रहते थे। अशान्त दुःखी थे या कम सुखी थे और आपने अच्छे-सच्चे मन से उन्हें चाहा, उनकी सत्य बात मान ली तो ईश्वर स्वस्थ हो गये, उनको सुख-शान्ति मिली?
यह आपका बिल्कुल ग़लत मत व मिथ्या कल्पना मात्र है, क्योंकि ईश्वर पूर्ण से भी पूर्ण है। उसे किसी के प्रेम से सुख व द्वेष भाव से दुःख नहीं मिलता है। ईश्वर किसी के कुछ भी अच्छा करने से अधिक सुखी नहीं होता और उसके विरुद्ध करने से उसे कुछ भी दुःख तनाव चिंता नहीं होती।
लेकिन वेदों में तो स्तुति प्रशंसा और प्रार्थनाएँ ही है! क्या ईश्वर अपनी प्रशंसा सुनकर खुश होता है?
नहीं।
तब क्यों वेदों में वर्णित सत्य स्वरूप परमात्मा ने अपने स्वयं के प्रति धन्यवाद आदि करने को कहा? क्यों?! उससे प्रेम करने से, उसकी स्तुति या गायत्री आदि से प्रार्थना करने पर उसको लाभ होगा या हमको? ईश्वर ने संसार बनाया! क्या अपने मनोरंजन के लिए? कि खाली अकेले उदास बैठे रहने से क्या लाभ! चलों जीवात्माओं की ड्रामेबाजी (नाटक) देखते हैं।
ऐसा बिल्कुल भी नही है। यह सब वेद की ऋचाएँ हमारे कल्याण के लिए दी हैं, हमारी रक्षा के लिए हैं। हमारे जीवन के परम उद्देश्य की प्राप्ति व आत्मा के उत्कर्ष के लिए हैं। इस लोक में और इसके अनन्तर परलोक(परजन्म) के लिए भी हैं। उसका हमारी रक्षा का यहीं तरीका है कि हम उसके संदेश को वेदों में पढ़ें और उसकी उपासना, भक्ति पूर्वक ध्यान, समाधि से उसके निकट हो जाये। हम अपने सुख, शान्ति, स्वास्थ्य, आनंद के लिए उसके निकट हो। उसको अंतर्रात्मा में धारण कर स्वयं को रक्षित करें।
वह रक्षा करता है क्योंकि वह जगत की माता है, जगत का पिता भी है। अपने माँ-पिता को कोई बच्चा नहीं कहता कि मेरी रक्षा करों माँ! जब पुत्र या पुत्री निकट होते है तो माँ-पिता बिना कहे ही यथाशक्ति रक्षा करते ही हैं।
महत्त्वपूर्ण है- निकट होना
अब निकट कैसे हो? यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह परमेश्वर तो सर्वव्यापी चेतन है सबके सबसे अधिक निकट वही तो है!
फिर भी उसका अता-पता नहीं चल रहा..
कैसे ढूंढे, कैसे जानें, कैसे पहचानें, कैसे खोजे, कैसे ???
क्रमशः...
आचार्य लोकेन्द्र:
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