प्रकृति (Prakriti)
यह अचर तथा अचेतन तत्व है जिसे पदार्थ भी कहते हैं। इसी जड़ पदार्थ को "प्रकृति" कहते हैं जिससे जगत बना है। लोक में प्रचलित 'प्रकृति' शब्द सृष्टि के लिए प्रयुक्त होता है जो कि सही नहीं है। सृष्टि 'रचना' को कहते हैं, निर्माण का नाम सृष्टि है। प्रकृति का अन्य नाम 'माया' है। यह संसार का उपादान कारण अर्थात यह जगत जिससे बना उसका नाम प्रकृति है। यह संसार का सबसे छोटा (स्मालेस्ट पार्टिकल) कण है अर्थात पूरे जगत का मूल है (रो मैटेरियल) है। जिसे सत्व, रजस्, तमस् कहते है। प्रकृति स्वयं कार्य नहीं कर सकती, चेतन के द्वारा सब तरह से गति करती है परिणामी अर्थात परिवर्तनशील है। स्वयं का बोध नहीं, प्रकृति नॉन लिविंग सत्व, रजस्, तमस् मूल कणों से ईश्वर के द्वारा जगत के रूप में प्रकट होती है।
प्रकृति शब्द का अर्थ नेचर या एनर्जी के रूप में अनुवाद करना अंग्रेजी अनुवादकों की बड़ी त्रुटि रही है। यह कोई मैजिक या भ्रम नहीं। ईश्वर कोई मैजिशियन नहीं, जादूगर नहीं है। मैजिक क्या है भ्रम उत्पन्न करने की कला। यह ईश्वर के प्रति अच्छा सम्मानीय शब्द नहीं हो सकता। यह जगत तो पदार्थ से निर्मित चेतन से पृथक सत्ता है। शक्ति तो निर्माता का स्वाभाविक लक्षण होता है। प्रकृति के लिए शास्त्रों में ब्रह्म शब्द भी आता है। ब्रह्म वेदों के लिए भी आता है और ईश्वर का भी एक गुणवाचक नाम ब्रह्म है। जो महान है, विराट है, बड़ा है उसे ब्रह्म कहते हैं। तो विराट होने के कारण आकाश को भी ब्रह्म कहते हैं। इसमें कोई दोष नहीं है। प्रकृति सबसे छोटे कणों को कहा जाता है आज की भाषा में जिसे परमाणु कहते हैं वह मूल प्रकृति नहीं है।
प्रकृति वही है जिसके अंदर आकाश या स्पेस नहीं, पदार्थ का अंतिम भाग, जिसके टुकड़े नहीं हो सकते। यह जगत की प्राग् अवस्था है। इसे अव्यक्त भी कहते हैं। मूल कणों की साम्य अवस्था प्रकृति है। जहाँ सत्व, रजस्, तमस् तीनों प्रकार के मूल कण समान रहते हैं।
प्रकृति का स्वरूप (Form of Prakriti)
इस दृश्य और अदृश्यमान प्रपंच जड़ जगत् अर्थात सूर्य, चंद्र, भूमि, नक्षत्र, वृक्ष, वनस्पति आदि और चींटी से लेकर मनुष्य और मनुष्य से लेकर हाथी व समुद्री व्हेल पर्यंत प्राणियों के शरीरों का मूल उपादान कारण (मैटेरियल कौज) प्रकृति है। जो अनादि है, अनुत्पन्न है। परंतु इसका रूप बदलता रहता है। अर्थात यह परिणामी है। यह सूक्ष्म, अनादि, नित्य और परमाणु रूप है। यह जड़, उत्पत्ति- विनाश रहित, निरवयव और नित्य है। यह विभिन्न और असंख्य है। इनके पारस्परिक संयोग-विभाग के द्वारा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश पंचभूत उत्पन्न होते हैं। जीवो के शरीर फिर इन भूतों से निर्मित होते हैं। यह प्रकृति त्रिगुणात्मक अर्थात सत्त्व, रजस्, तमस् गुण वाली है। सत्व अर्थात् (प्रकाश, तेज, शुद्धता), रजस् अर्थात् (मध्यभाव, गति, तरलता) और तमस्( जड़ता, घनता, स्थिति, स्थूलता)। इन गुणों से युक्त होने के कारण ही प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहते हैं। सूक्ष्म होने से यह इंद्रियों से दिखाई नहीं देते, इसलिए अव्यक्त है। अदृश्य है। पृथ्वी आदि पांच स्थूलभूत रूप द्वारा व्यक्त होते हैं अर्थात दृश्यमान जगत के रूप में प्रकट होते हैं। इस प्रकार यह सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप धारण करती है। इसके क्रमिक विकास का अंतिम परिणाम यह स्थूल सृष्टि है यह दृश्य जगत है।
जगत की बीज अवस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। कुछ लोग ईश्वर को ही इस जगत का उपादान कारण मानते हैं, लेकिन वेदों के अनुसार प्रकृति या पदार्थ की अलग सत्ता है। जगत का उपादान कारण कोई पदार्थ ही हो सकता है। ईश्वर या ईश्वर की शक्ति नहीं। ईश्वर जगत का निमित्त कारण है, जो प्रकृति को प्रेरणा दे उसमें विकार उत्पन्न करके सृष्टि निर्माण करता है। विकार का अर्थ विकृति है अर्थात मूल प्रकृति में बदलाव। उसके अनंतर ही सृष्टि रूप में जगत दृश्यमान होता है। प्रकृति की विकृति का नाम ही सृष्टि अर्थात रचना या कार्य है। प्रकृति कारण है और सृष्टि कार्य है।
अब अगला प्रश्न यह है कि प्रकृति का स्वरूप कैसा हो? ताकि यह प्रकृति, जगत का उपादान कारण (Raw material) भली प्रकार बन सके।
यह ऐसी स्थिति है जैसे कोई मनुष्य अनेकानेक वस्तुओं को देख रहा हो, किंतु उनकी मूल सामग्री को न देख पा रहा हो, जिससे कि वे वस्तुएँ बनी है। यह स्वाभाविक ही है कि वह सामग्री का स्वरूप उन वस्तुओं से ही निर्धारित करेगा, कार्य से ही कारण ज्ञात होता है। मान लीजिए एक कांच की दुकान है। वहाँ अनेक प्रकार की वस्तुएँ हैं। सब एक धातु से बनी है, किंतु अपने उपयोग के अनुसार आकार या आकृतियाँ भिन्न-भिन्न है।
🌷सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृति:। (सांख्य दर्शन: अध्याय - 1 सूत्र-61)
अर्थ :- सत्व, रजस्, तमस् तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उसका नाम प्रकृति है।
पुरुष और प्रकृति / चेतन और जड़ में अंतर (Difference between Purusha and Prakriti / animate and inanimate)
जो ज्ञानवान सत्ता है या जो ज्ञान प्राप्त कर सकता हैं, ऐसी चिति शक्ति परम शक्तिमान ईश्वर व सभी जीवात्माओं को चेतन कहा जाता है।
🌷इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःख ज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति। (न्याय दर्शन१/१०)
जहाँ, जिसमें इच्छा-द्वेष रहते हैं, जो प्रयत्न करें, जिसमें सुख-दु:ख व ज्ञान हो वहाँ चेतन या जीवात्मा है, ऐसा समझना चाहिए।
🌷न जायते म्रियते वा..
जो न कभी जन्म लेता है न मरता है। वह न किसी से बना है, न ही इससे कोई बनता है, न ही इसको कोई बनाने वाला है। यह पुरातन, अजन्मा, नित्य एवं शाश्वत है। शरीर की मृत्यु से इसकी मृत्यु नहीं होती यही चेतन है।
शरीर के मध्य भाग में रहने वाला एवं शीघ्र गति वाला वह अविनाशी जीवात्मा गति प्राप्त करते हुए प्राण शक्ति से परिपूर्ण हो रहा है। विनाश रहित जीवात्मा अपने निज कर्मों के कारण मर्त्य शरीर के साथ समान स्थानी होकर नश्वर जगत के मध्य भाग में विचरण करता है।
परमात्मा अनेक नित्य में एक नित्य है। वह अनेक क्षेत्रों में एक चेतन है। वह अकेला ही अनेक जीवात्माओं की कामनाएँ पूर्ण करता है। सुख-दु:ख का अनुभव करने वाली जीवात्माएँ अनेक है, असंख्य है। केवल ईश्वर ही जीवात्माओं की संख्या जानते हैं, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। मानव के लिए चेतनों की संख्या गिनना संभव नहीं।
इसके विपरीत जड/प्रकृति ज्ञानरहित है, परतंत्र है, ईश्वर के द्वारा किसी दूसरी अवस्था को प्राप्त करता है, परिणामी है, परिवर्तनशील है, नश्वर है, क्षरणधर्म वाला है। प्रकृति जीवो के भोग के लिए है स्वयं अपने लिए नहीं। जैसे ऊंट पर लादे गए केसर की तरह स्वयं का उपभोग न ले सकने के कारण प्रकृति की सृष्टि जीवात्मा के सुख-दु:ख के लिए ही होती है।
एक अज(अजन्मा) अर्थात ईश्वर है जो परम पुरुष है। दूसरा अजा(अजन्मा) अर्थात प्रकृति है। अज, अजा का भोग नहीं करता। ऋग्वेद 1/164/20 का मंत्र "द्वा सुपर्णा.." कहता है कि पुरुष भोग करता है, परंतु परम पुरुष भोग नहीं करता केवल मार्ग बताता है।
जड़ देवों की पूजा कैसे करें? (how to worship deities/devtas of nature?)
पूजा का अर्थ है आदर करना या सम्मान करना। अब जड़ देव अर्थात पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु आदि सभी प्रकृति के पदार्थों का सम्मान कैसे किया जाए? यह एक सामान्य बात है कि जब हम किसी का सदुपयोग करते हैं और संरक्षण करते हैं तो यह उसकी सामान्य अवस्था को बचाए रखने के लिए और उसका लाभ लेने के लिए उसका उत्तम सम्मान है। किंतु हकीकत तो यह है कि इस पृथ्वी आदि को हम सब जन्म से लेकर मृत्यु तक केवल भोगते हैं, गंदगी फैलाते हैं लेकिन रिटर्न कुछ भी नहीं करते। इसलिए पेड़-पौधे लगाना चाहिए, यज्ञ-हवन के द्वारा वातावरण को अच्छा बनाना चाहिए। आकाश का प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, जितने भी प्रकार के प्रदूषण है, मिट्टी से लेकर जल, वायु आदि उन सबके लिए, उन सबकी स्वच्छता के लिए कार्य करने चाहिए, ताकि वह हमारे लिए लाभकारी हो, आरोग्यकारी हो। इसके लिए हमें उत्तम से उत्तम उपाय करने चाहिए। यही उनकी पूजा है, यही उनका सम्मान है।
सबसे उत्तम है यज्ञ करें व वृक्षारोपण, संरक्षण ओर सादगीपूर्ण जीवन बनाये। विलासिता पूर्ण जीवन ने ही सब गंदगी फैलायी है।
शरीर, मन, बुद्धि, इंद्रियाँ आदि जड़ या चेतन? (Are body, mind, intellect, senses etc. inanimate or animate?)
यह सब जड़ है प्रकृति से निर्मित है। यह चेतन का अर्थात जीवात्माओं का निकटतम साधन है।
यह सब ईश्वर द्वारा सबको भिन्न-भिन्न कर्मो के अनुसार कर्मफल की व्यवस्था से प्राप्त होता है। इसलिए सब के शरीर भिन्न होते हैं। सबके मन, बुद्धि, इंद्रियाँ भिन्न होते हैं, क्योंकि सबके कर्म भी भिन्न होते हैं। संसार में किन्ही भी दो जीव/आत्माओं के कर्म समान नहीं होते। इसीलिए संसार में किसी भी दो मनुष्यों के अंगूठे का छाप भी नहीं मिलता। चेहरा, मन, बुद्धि और दूसरी चीजें तो बिल्कुल भिन्न होती है। कितने भी जुड़वा हो, हमशक्ल हो लेकिन थोड़ा-बहुत अंतर सबमें रहता है। संसार में कोई भी दो शरीर, दो बुद्धि , दो मन, दो इन्द्रियाँ एक जैसे नहीं होते, क्योंकि मन, बुद्धि, शरीर, इंद्रियाँ आत्मा का साधन है और आत्मा के द्वारा प्रेरित होते हैं, क्रियाशील होते हैं। क्रियाशील होने के कारण भ्रांति वश हम इन्हें चेतन मान लेते हैं। जबकि यह सब एक यंत्र की तरह या एक गाड़ी की तरह है और आत्मा चालक की तरह कार्य करता है। कभी-कभी लोक व्यवहार में कम बुद्धिमान व्यक्ति को मूर्ख ना कहकर जड़बुद्धि कह देते हैं, जबकि वास्तविकता तो यही है कि बुद्धि तो सभी की जड़ ही होती है, चाहे कोई कितना भी बुद्धिमान हो उसकी भी बुद्धि जड़ ही है, चेतन नहीं। इसलिए किसी दार्शनिक के सामने इन शब्दों का प्रयोग जरा संभलकर करना चाहिए। कहीं आप बुद्धि को चेतन सिद्ध ना कर पाए और आपको नीचा देखना पड़े।
सृष्टि की आयु (Age of the Universe)
महर्षि दयानंद सरस्वती की वैदिक सृष्टि प्रलय की गणना के अनुसार 432 करोड़ वर्ष की सृष्टि और 432 करोड वर्ष का ही प्रलय काल होता हैं। अर्थात एक सृष्टि प्रलय 864 करोड़ वर्ष का होता हैं। जैसे 1 दिन और 1 रात मिलाकर 12+12=24 घंटे होते हैं। वैसे ही यदि सृष्टि की अवस्था को दिन की अवस्था तथा प्रलय अवस्था को रात्रि अवस्था माना जाए तो वह 432+432= 864 करोड वर्ष का होगा।
यह आज के वर्ष की गणना के अनुसार 432 करोड वर्ष है। अर्थात इस समय पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि आकाश में जो रचना हुई है। यह सब 4 अरब 32 करोड वर्षों तक रहती है। इसके बाद इतने ही वर्षों तक अर्थात 4 अरब 32 करोड वर्षों तक महाप्रलय हो जाता है। पूरा अंतरिक्ष शून्य हो जाता है।
अभी तक यह सृष्टि एक अरब 96 करोड 8 लाख 53 हजार 123 वें वर्ष में चल रही है, अर्थात लगभग 236 करोड वर्षों तक यह दूनिया अभी ओर रहेगी।
सृष्टि उत्पत्ति की प्रक्रिया (Process of creation of the universe)
महाप्रलय के बाद ईश्वर, जीव व जगत की स्थिति (The state of God, the soul and the world after destruction of the universe)
संसार की प्रलय अवस्था में सभी जीव/आत्माएँ बेहोश हो जाते हैं, सो जाते है। केवल एक अकेला ईश्वर ही जागता है। वह सब जान रहा होता है। ईश्वर के साथ-साथ मुक्त आत्माएँ ईश्वर के आनंद से आनंदित रहती है और अन्य सभी जीवात्माएँ सुप्त रहती हैं। संपूर्ण जगत अपने कारण में लीन हो जाता है, अर्थात सत्व, रजस्, तमस् में चला जाता है और सारा आकाश अंधकार से युक्त न जानने के सर्वथा अयोग्य शून्य अवस्था में 4 अरब 32 करोड वर्षों तक रहता है। उसके बाद पुनः ईश्वर प्रकृति से सृष्टि करता है और सभी सुप्त जीवात्माओं को यथायोग्य पूर्व सृष्टि के कर्मों के आधार पर शरीर,आयु व भोग साधन प्राप्त कराता है।
ऐसे ही सृष्टि की आयु के बाद फिर प्रलय और प्रलय के बाद फिर सृष्टि, जैसे दिन के बाद रात और रात के बाद दिन ऐसा ही सृष्टि प्रलय का अनादि और अनंत प्रवाह चल रहा है, जो कभी नहीं रुकेगा।