top of page
 धर्म, धर्म क्या है?, सनातन धर्म, सनातन धर्म क्या है? वैदिक धर्म क्या है? हिंदू धर्म और सनातन धर्म में क्या अंतर?, सनातन धर्म के संस्थापक कौन?,धर्म एक या अनेक, धर्म और मत/मजहब/पंथ मेंअंतर, सनातन धर्म के ग्रन्थ, हिंदू का क्या अर्थ है? हिंदू का पवित्र ग्रन्थ कौन सा है? हिन्दू का क्या अर्थ है?, हिन्दू का पवित्र ग्रंथ कौन सा है? छः शास्त्र कौन कौन से है?

सनातन धर्म (Sanatan Dharm)

जो सदा से चलता आया है वह सनातन है। वैदिक धर्म ही सनातन धर्म है, क्योंकि सदा से है। यही सार्वभौमिक(सभी के लिए), सार्वकालिक(सभी समय में), सार्वदेशिक(सभी स्थानों पर), वैज्ञानिक, तार्किक व सृष्टि नियम के अविरूद्ध है।

सनातन धर्म सृष्टि के आदि से हैं, आरंभ से हैं। इससे पहले सृष्टि में भी था। यदि इस सृष्टि में इसका समय देखें तो भी जब से दुनिया में मनुष्य ने प्रथम बार आँखें खोली तब से अब तक और जब तक यह संसार रहेगा तब तक सनातन धर्म ही शेष रहेगा। कितने भी जन्म होंगे, कितने भी मत/पंथ/संप्रदाय खड़े होंगे फिर भी सनातन वैदिक धर्म हमेशा रहेगा। 

 

सनातन धर्म की कभी उत्पत्ति नहीं हुई क्योंकि यह अनादि है और जो अनादि ईश्वरीय धर्म हैं वह उत्पन्न नहीं होता। और जो उत्पन्न नहीं होता वह नष्ट भी नहीं होता। जो उत्पन्न होता है वह नष्ट हो जाता है। इसलिए सनातन धर्म ईश्वरीय नियमों का संग्रह है जिन्हें कभी समाप्त नहीं किया जा सकता।


सनातन धर्म कोई रिलीजन नहीं है। संप्रदाय भी नहीं है। मत, पंथ, या मजहब भी नहीं है। यह सार्वभौमिक सत्य नियम है। विश्व का सबसे पुराना धर्म 'वैदिक धर्म' ही है। इसे ही सनातन धर्म कहते हैं।

DharmKyaHai

धर्म क्या है? / वैदिक धर्म की परिभाषा (What is Dharm? / Definition of Vedic Dharm)

सर्वप्रथम 'धर्म' शब्द की व्युत्पत्ति और उसका अर्थ जान लेना भी अति आवश्यक है।
"धर्म = धृ+मन्", अर्थात् 'धृ' धातु में 'मन्' प्रत्यय लगाने से "धर्म" शब्द बना है। जिसका अर्थ है धारण करना। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जिसे धारण किया जा सके वह धर्म है।
अब प्रश्न उठता है, किसको धारण करना? तो इसका उत्तर है अपने सद्गुणों को धारण करना। विश्व में प्रत्येक वस्तु और जीव के अपने-अपने कुछ कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव होते हैं, जो धारणीय हैं। इन सब का मिश्रित रूप ही धर्म कहलाता है।


जैसे सूर्य या अग्नि का गुण है प्रकाश देना, ज्वलनशीलता, ऊपर उठना और ताप देना। यह अग्नि का धर्म है। जल का गुण शीतलता देना, नीचे की ओर प्रवाहित होना और गीला कर देना तथा स्वच्छता प्रदान करने का है। यह जल का अपना धर्म है। ऐसे ही वायु का गुण सुखाना और जीवन प्रदान करना है। यह वायु का धर्म है। आकाश का गुण शून्यता अर्थात खाली स्थान है, जिसमें वह वायु को धारण करता है। यह गुण ही आकाश का धर्म है। पृथ्वी का गुण है स्थूलता एवं उत्पादन करना। यह पृथ्वी का धर्म है। वृक्षों का गुण है शुद्ध वायु, फल, फूल, औषधि आदि देना। यह वृक्षों का धर्म है। इसी प्रकार मनुष्य के भी कुछ सबके लिए कल्याणकारी विशिष्ट गुण, कर्म, स्वभाव है जो अन्य निर्जीव और चेतन संसार से भिन्न है। अतः दुनिया का हित करने वाले गुण, कर्म और स्वभाव को धारण करना ही मानव का धर्म है।


धर्म की विभिन्न परिभाषाएँ शास्त्रों में निहित है, जो सभी को सुख, शांति, आनंद प्रदान करने वाली तथा सर्वांगीण प्रगति का कल्याणकारी मार्ग है। जहाँ धर्म है वहीं स्वास्थ्य है। वहीं सुरक्षा है। वहीं कल्याण है। अतः शास्त्रों में धर्म के बारे में तो कहा गया है कि

🌷एक एव सुहृद्धर्मो निधने अपि अनुयाति य:। शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति।। (मनु.३३)
अर्थात इस संसार में एक सच्चा मित्र धर्म ही है, जो निधन या मृत्यु के बाद भी साथ चलता है, बाकी सब तो शरीर के नाश के साथ ही समाप्त हो जाता है।


ईश्वर और ईश्वरीय ज्ञान की इन तर्कपूर्ण परिभाषाओं के समान स्वामी महर्षि दयानंद सरस्वती ने  "स्वमंतव्यामंतव्य" में धर्म की जो परिभाषा की है वह बहुत ही बुद्धि संगत और सर्वग्राह्य है। उनके अनुसार पक्षपात रहित न्याय आचरण, सत्य भाषण आदि वेद विहित आज्ञा का नाम धर्म है। इस कसौटी पर अन्य मनुष्यकृत धर्म, सार्वभौम यानी सबके लिए कल्याणकारी नहीं हो सकते जैसा कि वैदिक धर्म हो सकता है। उन्हें हम मत, पंथ, मजहब, रिलिजन, संप्रदाय या उनके विचार तो कह सकते हैं, लेकिन वह धर्म नहीं है। जो विचार एक दूसरे के विरोधी हो वह भला धर्म कैसे हो सकते हैं?


धर्म के बारे में महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है-
🌷अहिंसा परमो धर्मस्तथा परं तप:। अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्म: प्रवर्तते।। (115/23)
अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है और अहिंसा परम सत्य है, क्योंकि उसी से धर्म की प्रवृत्ति होती है।


वैशेषिक दर्शन में महर्षि कणाद धर्म की परिभाषा बता रहे हैं-

🌷यतोभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म:। (१/१/२)
अर्थात जो हमें भौतिक उन्नति, यश व सफलता प्रदान करें तथा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करें वही धर्म है।


धर्म की परिभाषा करते हुए मनु महाराज लिखते हैं
🌷धृति: क्षमा दमो अस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।। (मनु स्मृति 6/92)

धृति - धैर्य अर्थात विपत्ति में धैर्य रखना,
क्षमा- यथायोग्य क्षमा धारण करना,
दम- मन पर नियंत्रण अर्थात मन को दुर्विचारों से रोकना,
अस्तेय- चोरी न करना,
शौच- तन, मन, वाणी और कर्मों की पवित्रता,
इंद्रिय निग्रह- इंद्रियों पर नियंत्रण,
धी- सद्बुद्धि,
विद्या- लोक कल्याणकारी ज्ञान की प्राप्ति एवं प्रयोग,
सत्य - जो आत्मा में है, मन में है वही वाणी से बोलना,
अक्रोध-क्रोध न करना।

धर्म के यह 10 लक्षण हैं। जिसके अंदर यह धर्म के लक्षण जितने-जितने अंश में है, वह उतने-उतने अंश में धार्मिक है। संसार में कोई भी व्यक्ति पूर्णरूप से शतप्रतिशत धार्मिक हो सकता है, लेकिन शतप्रतिशत अधर्मी नहीं हो सकता।

🌷वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:। एतच्चतुर्विधं प्राहु साक्षाद्धर्म लक्षणम्।। ( मनु स्मृति 2/12)

वेद, स्मृति, सज्जनों का आचरण और अपने आत्मा के अनुकूल प्रिय आचरण। धर्म के यह 4 लक्षण भी है। इन्हीं से धर्म का पता चलता है, निश्चय होता है। यदि कोई धर्म को जानना चाहे तो इन चारों को पहले जान ले, क्योंकि यही धर्म को लक्षित करते हैं।


धर्म का मूल क्या है इसको बताते हुए मनु महाराज लिखते हैं-

🌷वेदोअखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। आचारश्चैव साधुनामात्मनस्तुष्टिरेव च।। (मनु स्मृति 2/6)

अर्थात चारों वेद और वेदवेत्ताओं द्वारा रचित वेदानुकूल समृतियाँ या धर्मशास्त्र तथा उनका श्रेष्ठ स्वभाव, सत्पुरुषों का श्रेष्ठ आचरण, अपने आत्मा की प्रसन्नता अर्थात जिस कार्य के करने में भय, शंका, लज्जा न हो, जहाँ आत्मा को प्रसन्नता अनुभव हो यह धर्म के मूल और आधार है।


इन सब परिभाषाओं से सीधे एक बात सामने आ रही है कि जिस कर्म को धारण करने से संसार में और मृत्यु के बाद भी विशेष सुख की प्राप्ति हो वही धर्म है। इसके विपरीत जिस कर्म को धारण करने से दु:ख की प्राप्ति हो वह अधर्म है।


इसके अलावा उपनिषदों में सबसे बड़ा धर्म-
🌷न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकंपरम्। न हि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यस्य समाचरेत्।।
अर्थात सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं, सत्य से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है। इसलिए सत्य का आचरण सबको करना चाहिए।
जैसे सम्मान और कानून में गरीब, अमीर अथवा हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि संप्रदायों का भेद नहीं होता, वैसे ही धर्म भी सबके लिए समान होता है। देखो सत्य बोलना, चोरी न करना, विद्या की वृद्धि करना, अपने से बड़ों का आदर करना आदि कर्मों को सभी संप्रदाय तथा सभी जातियाँ अच्छा मानते हैं। तथा झूठ बोलना, चोरी करना, दूसरों को धोखा देना, दूसरों से द्वेष करना, माता-पिता का अपमान करना आदि को सभी संप्रदाय तथा सभी जातियाँ बुरा बताती है। धर्म-अधर्म का वास्तविक लक्षण स्वरुप यही है। इसी के आधार पर मनुष्य सुख-दु:ख भोगते हैं। इसी के आधार पर समाज में सम्मान या अपमान होता है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई कि धर्म दूसरों को लूटने के लिए नहीं। आडंबर रचा कर आपस में खींचतान करके मानव समाज को विकृत करने की वस्तु नहीं है, किंतु धर्म तो अपने जीवन में धारण करने की चीज है। इससे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि धर्म की रक्षा और अधर्म की निवृत्ति के लिए धर्म को मजहब, संप्रदाय, रेलीजन से अलग रखना चाहिए, क्योंकि धर्म हमारी रक्षा करता है।

🌷धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:। तस्मात्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो यथोवधीत्।।
अर्थात् धर्म का(हनन) करने से/ मारने वाले को मरा हुआ धर्म ही मार देता है। जो धर्म की रक्षा करता है तो रक्षित किया गया धर्म, रक्षा करने वाले की रक्षा करता है। इसलिए धर्म की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए ताकि मरा हुआ धर्म कहीं हमें ही न मार दे।


आजकल लोगों के सामने धर्म-अधर्म का कोई शास्त्रोक्त शुद्ध स्वरूप नहीं है। इसलिए धर्म को बस केवल प्रतीको व मंदिरों, मस्जिदों तक सीमित कर दिया गया है। जिनसे की धर्म का कोई संबंध ही नहीं है। और मानव का दुर्भाग्य तो यह है कि काल्पनिक विचारों को धर्म का नाम देकर धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीट-पीट कर इस पाखंड को स्वयं बढ़ावा दे रहे हैं। जबकि धर्मनिरपेक्ष कोई हो ही नहीं सकता। सभी को धर्म सापेक्ष होना ही चाहिए। धर्मनिरपेक्ष का अर्थ है धर्म के विरुद्ध अर्थात अधर्म के साथ। जोकि निश्चय ही पतन व विनाशकारी विचार है। शिक्षा का स्तर इतना गिर चुका है कि आज तक संसार की सभी सरकारे सभी देश मिलकर भी धर्म की एक परिभाषा तक नहीं दे पाए। और स्वयं की असभ्यता को छिपाने के लिए मानव आधुनिकता की दौड़ में गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा रहा।

धर्म एक है या अनेक?(Is there only one Dharm or many?)

धर्म दो नहीं हो सकते। धर्म एक ही है। शाश्वत है, और सनातन है। जब पदार्थ का विज्ञान दो नहीं हो सकता तो आत्मा का विज्ञान दो कैसे हो सकता है? जब बाहर का विज्ञान दो नहीं है तो अंदर का विज्ञान दो कैसे हो सकता है? जब स्थूल का विज्ञान दो नहीं है तो सूक्ष्म का विज्ञान भी दो नहीं हो सकता। इस प्रकार धर्म एक सनातन अवधारणा है जिसका ज्ञान पक्षपात रहित ही होना चाहिए और हैं।  वेदों में निहित मानवता और सदाचार के नियम ही धर्म है। जिसका किसी विशेष संप्रदाय या मत-पंथ से कोई संबंध नहीं है। आज जो धर्म की व्याख्या की जाती है और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई दी जाती है वह केवल एक राजनैतिक दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं है। जिसकी आड़ में राजनीतिक संगठन अपने स्वार्थ पूरे करते हैं। मानवता और सदाचार ही वैदिक धर्म का असली रूप है। मानव मात्र के लिए वेद का यह धर्म और संदेश सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक चला आ रहा है जो इसके अनुकूल चले उन्हें इसका लाभ मिला और मानव समाज के सामने वह आज भी विद्यमान हैं। जो आज इसी धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं वह भी भविष्य में इससे लाभ उठाएंगे।


क्या सभी देशों में सभी मनुष्यों के लिए विज्ञान के नियम अलग-अलग होते हैं? क्या भारत में जो 1 किलोग्राम में भार होता है वह चीन या पाकिस्तान में, अमेरिका में उसमें कम-अधिक होता है? यदि विज्ञान के सभी नियम सब जगह समान हैं, भारत में भी 1 किलोमीटर में 1000 मीटर होते हैं और पृथ्वी के सभी देशो में भी इसी नियम पर चलते हैं। पाकिस्तान, अमेरिका आदि सभी जगह 1 किलोमीटर सबका बराबर है। जल की बनने की प्रक्रिया में हाइड्रोजन के दो परमाणु तथा ऑक्सीजन का एक परमाणु प्रयुक्त होता है। तो यह जल बनने का नियम क्या हिंदुओं, मुस्लिमों पर या भारत में ही लागू होता है या संसार के सभी लोग सभी स्थान पर इसी H2O को मानते हैं?
जब विज्ञान के सब नियम सभी जगह एक समान हैं तो अध्यात्म के नियम भी निसंदेह एक समान ही होने चाहिए और होते हैं। वैदिक धर्म ही वास्तव में वैज्ञानिक धर्म है जिसके नियम सार्वभौमिक, सार्वकालिक व सार्वदेशिक है।

DharmEkYaAnek
DharmAurMatmeAntar

धर्म और मत/मजहब में अंतर (Difference between Dharm and Religion)

वेद के अनुसार आचरण करना ही धर्म है और उसके विपरीत आचरण करना अधर्म है, क्योंकि वेद ही ईश्वरीय ज्ञान है। जो सृष्टि के आदि में मिला वैदिक धर्म है, एकमात्र धर्म है। यह सभी का धर्म है। वैदिक धर्म के अलावा सभी मत या विचार मनुष्य के स्वयं की कल्पना से किए गए मिश्रित ज्ञान का पुस्तक है। जैसे ईसाई मत, जैन मत, बौद्ध मत, इस्लाम मत, सिख मत आदि।


वर्तमान में यह सभी मत/संप्रदाय स्वयं को धर्म कहते हैं। दुर्भाग्यवश अनेक व्यक्ति भी अज्ञान, स्वार्थ और पूर्वाग्रह के कारण इन संप्रदायों को धर्म कहते हैं। इन सभी मत/पंथ/संप्रदायों में परस्पर भयंकर मतभेद हैं।
इन मतों के तीन आधार होते हैं

  1. संस्थापक

  2. ग्रंथ और 

  3. पूजा पद्धति

वर्तमान में सभी मजहब/रिलीजन या मतों के संस्थापक, ग्रंथ और पूजा पद्धति भिन्न-भिन्न है। विभिन्न मतों में कभी भी एकता नहीं हो सकती। विचार विरोधी होने पर ही सभी झगड़े होते हैं। धर्म सब का एक ही होता है, क्योंकि धर्म की व्याख्या जिन सत्य नियमों पर आधारित होती है वह सबको स्वीकार्य होता है। लेकिन मतों में एक दूसरे के विरोधी बात होने से वह सार्वभौमिक, सार्वकालिक व सार्वदेशिक नहीं हो सकते।

धर्म और मत में मुख्य अंतर इस प्रकार हैं-

  • धर्म केवल ईश्वर को सर्वोच्च मानता है, किंतु मत/पंथ/संप्रदाय केवल अपने संस्थापक को सर्वोच्च मानते हैं।

  • धर्म केवल ईश्वरीय ज्ञान वेद को अपना सबसे आदर्श ग्रंथ मानता है, किंतु सांप्रदायिक लोग अपने संस्थापक की शिक्षा के ग्रंथ को ही अपना आदर्श मानते हैं।

  • धर्म तो ईश्वर के नियमों पर आधारित होता है, किंतु मजहब किसी मनुष्य की मान्यता पर आधारित होता है।

  • धर्म सभी मनुष्य और मनुष्य के अलावा सभी प्राणियों, संपूर्ण जड़-चेतन पदार्थों का हित चाहता है और करता है। किंतु मत/सम्प्रदाय  केवल अपने अनुयायियों या समर्थकों का ही हित चाहते हैं और करते हैं।

  • धर्म में आपसी मतभेद व संघर्ष का कोई स्थान नहीं है, परंतु एक मत के लोग दूसरे मत के लोगों से संघर्ष करते हैं।

  • धर्म में एक ईश्वर की ही उपासना होती है। इसलिए उसे हीन दृष्टि से देखा ही नहीं जाता, किंतु एक मत के अनुयाई दूसरे मत के अनुयाईयो की पूजा पद्धति आदि को हीन दृष्टि से देखते हैं।

  • धर्म सदा एक हैं। सबके लिए समान और श्रेष्ठतम ही होता है। किंतु मत अनेक है। सबके लिए समान और प्रामाणिक नहीं होते। प्रत्येक मत के अनुयाई स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट(नीचा) समझते हैं। 

  • धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक, सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वभौमिक है। जबकि मत में अवैज्ञानिक, कुतर्क, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा व काल्पनिक कथा-कहानियाँ भरी होती है।

  • धर्म परिवर्तित नहीं किया जा सकता। मत परिवर्तन हो सकता है।

धर्म ग्रंथ वेद ही क्यों?(Why only Vedas as scripture?)

क्योंकि जो सबको पक्षपात रहित न्याय पूर्वक सत्य का ग्रहण और असत्य का सर्वथा परित्याग सिखाता है उसी को धर्मग्रंथ मानना चाहिए। जिसे संसार के सभी मनुष्य स्वीकार कर सके। जो सबके अविरुद्ध हो, प्राणी मात्र के कल्याण के लिए जो हो, जिसमें किसी मनुष्य का देश, जाति, भाषा, रंग, रूप आदि के कारण भेदभाव न हो वह ही धर्म हो सकता है।


वेद क्योंकि सृष्टि के आदि में ईश्वर के द्वारा ऋषियों के अंतः करण में दिया गया वह विचार हैं जो मनुष्य को मुक्ति का मार्ग दिखाता है, जीने का ढंग सिखाता है। दु:ख से मुक्ति और नित्य आनंद की प्राप्ति के लिए वेद के संदेश का अनुकरण करना ही धर्म है।

अब प्रश्न उठता है कि ऐसा तो कुरान, बाइबल आदि के मानने वाले भी कह सकते हैं कि हमारे ग्रंथ में भी कोई संदेह नहीं करना! लेकिन जो विज्ञान, तर्क व बुद्धि के विरुद्ध हो, प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हो वहाँ व्यक्ति संतुष्ट नहीं हो सकता। क्या धर्म ग्रंथ में ऐतिहासिक घटनाएँ होनी चाहिए ?

नि:संदेह नहीं!


क्योंकि सृष्टि के आदि में कोई इतिहास नहीं था। जबकि इन कुरान, पुराण, बाईबल आदि में ऐतिहासिक कथा-कहानियाँ, कपोल(मनगढ़ंत), कल्पित, विज्ञान विरुद्ध, भूत, प्रेतों, चुड़ैलों और पता नहीं क्या-क्या अंधविश्वास व पाखंड भरा हुआ है जो एक दूसरे के विरुद्ध है, और किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसलिए, क्योंकि वेद में कोई कथा-कहानियाँ नहीं है, वह सार्वभौमिक नियम है। दुनिया में हम क्यों आए? मानव जीवन का क्या उद्देश्य है? उस उद्देश्य को कैसे पूरा करना है? क्या बाधाएँ हैं? उन बाधाओं को कैसे दूर करना है? आदि बातें वेद के अंदर विधि-निषेध के रूप में है अर्थात यह करना, यह नहीं करना। इससे सुख मिलेगा, इससे दु:ख मिलेगा। जो धारण करने योग्य है वही वेद में है, वही धर्म है।


यदि सभी संप्रदाय, मत, पंथ के लोग अपनी-अपनी पैगंबर की पुस्तकों को धर्म ग्रंथ बताने लगे तो यह संप्रदाय तो 2- 4 हजार वर्ष के भीतर ही अस्तित्व में आए हैं। जबकि यह सृष्टि तो एक अरब 96 करोड़ वर्ष पुरानी है। तो इन मतों से पहले के लोगों को ईश्वर ने धर्म के बिना ही रखा? यह आरंभ के मनुष्य के लिए तो घोर अन्याय हो जाएगा! ईश्वर ऐसा नहीं कर सकता कि आधी सृष्टि बीत जाने के बाद धर्म और अधर्म की प्रेरणा करें और जो सृष्टि के आदि में लोग उत्पन्न हो गए उनको इसका तनिक भी ज्ञान न हो सकें। क्योंकि ईश्वर न्यायकारी है, अतः मानव की उत्पत्ति के साथ ही धर्म का ज्ञान देता है। जो निरपवाद रूप से केवल वेद ज्ञान ही है।

DharmGranthVedhiKyon

धर्म में तर्क का स्थान (Place of logic in Dharm)

🌷'य:तर्केण अनुसंधत्ते स धर्मं वेद न इतर:'
अर्थात् जो तर्क के द्वारा अनुसंधान/खोज करता है, जो बुद्धि से विचार करके निर्णय करता है, वही धर्म को जान सकता है, उसी को धर्म का ज्ञान होता है, (न इतर:)अन्य को नहीं। 


तर्क के बिना धर्म अंधविश्वास व धर्मान्धता का पर्याय बन जाता है। जो निश्चित ही पतन व सर्वनाश की ओर ले जाता है। आजकल तो माता-पिता, अभिभावक से लेकर बहुत सारे कथाकार, उपदेशक भी इसी बात को कहते हैं कि धर्म पर प्रश्न मत उठाओ! मान लो! जो है मान लो, आँखों के साथ बुद्धि के द्वार पर भी ताला लगा कर आओ, बैठो, धर्म पर प्रश्न नहीं उठाना! कथा पंडाल व मंदिरों, मस्जिदों आदि में चप्पल और जूतों के साथ ही बुद्धि/तर्क को  द्वार के बाहर निकाल कर आओ।


क्यों? क्यों भाई? फिर ईश्वर ने बुद्धि दी ही क्यों?
क्या इसलिए  इसका प्रयोग केवल अधर्म बढ़ाने में ही करना है? क्योंकि यदि लोग प्रश्न नहीं उठाएंगे तो उत्तर भी नहीं देना पड़ेगा। क्योंकि उत्तर देने के लिए वेद शास्त्र पढ़ने पड़ते हैं। परिश्रम लगता है और वह पढ़ने नहीं है। केवल लूटना है। धर्म के नाम पर, मजहब के नाम पर केवल अपने स्वार्थों की सिद्धि करनी है। इसलिए किसी को कोई प्रश्न उपस्थित हो गया तो वह मठाधीश स्वयं को विद्याहीन, असहाय स्थिति में नहीं चाहता। इसलिए तर्क करने को मना करते हैं। यही वास्तविकता है। अन्यथा वैदिक धर्म तो कहता है कि पहले तर्क करके शुद्ध ज्ञानी बनों। शुद्ध ज्ञान फिर शुद्ध कर्म उसके बाद ही शुद्ध उपासना की जानी चाहिए। तभी धर्म का सही स्वरूप सामने आता है। धर्म प्रधान मनुष्य ही सब की सहायता से पापों से विमुक्त होकर परलोक में परमात्मा को प्राप्त करता है।

DharmmeTarkkaSthan

सनातन धर्म के संस्थापक कौन है? (Who is the founder of Sanatan Dharm?)

सनातन धर्म का संस्थापक कोई मनुष्य नहीं है। यह ईश्वरीय ज्ञान/नियमों या वेदों को मानता है। वेद को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया। पुस्तक के रूप में वेद मनुष्य ने अवश्य लिखें, लेकिन उसका ज्ञान ईश्वरीय है। वेद की पुस्तक पर किसी संस्थापक या लेखक का नाम नहीं है। समाधि अवस्था में सृष्टि के आदि में प्रथम चार श्रेष्ठ मनुष्यों को वेद का ज्ञान स्वयं परमपिता परमेश्वर ने उनके अंतः करण में दिया जो सदा से है। वही सनातन है। अतः सनातन धर्म का संस्थापक या लेखक कोई मनुष्य नहीं।

SanatanDharmkeSansthapakKaun

सनातन धर्म के सिद्धांत (Principles of Sanatan Dharm)

वैदिक धर्म के सिद्धांत ही सनातन धर्म के सिद्धांत है। जो ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति की पृथक सत्ता मानता है। जीवात्माएँ असंख्य है, शरीर धारण करती है। पाप-पुण्य के फल स्वरुप सुख-दु:ख भोगते हैं। यह प्रकृति जड़ है, निर्जीव है, वह आत्मा का साधन बनती है तथा ईश्वर संसार का स्वामी, क्रिएटर, ऑर्गेनाइजर, डिस्ट्रॉयर, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। सनातन धर्म के नियम वही है जो वेद, दर्शन, स्मृतियों व उपनिषदों में बतलाए गए हैं। सनातन धर्म का मूल मंत्र गायत्री मंत्र है जिसे महामंत्र भी कहते हैं।

गीता के अनुसार अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करना धर्म है। भगवान श्री कृष्ण भी गीता के उपदेश धर्म की रक्षा के लिए अर्जुन को देते हैं। सबको अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। वेद के अनुकूल आचरण करना ही गीता का उपदेश है। वही धर्म है।

सनातन धर्म में 33 प्रकार के देवों की पूजा की जाती है, जिनमें जड़ व चेतन देव दोनों है। लेकिन उपासना के योग्य केवल ईश्वर को ही माना गया है। वही ओ३म् उपास्य है। कलयुग में भी हमें अपने सभी देवों की पूजा करनी चाहिए अर्थात सब का सम्मान करना चाहिए तथा ईश्वर की उपासना हमेशा करनी चाहिए।

सनातन धर्म की भूमिका जहाँ नहीं है वहाँ संस्कार, शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति सब कुछ विनाश की तरफ बढ़ रहा है। जहाँ सनातन धर्म को जानने वह मानने वाले हैं वहीं पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर की सच्ची भक्ति है। अन्यथा चारों ओर भोग की ज्वाला और भोग की जय जयकार के साथ भक्तिहीन, दिशाहीन भौतिकता व विज्ञान से संसार दु:ख के सागर में जा रहा है।

SanatandharmkeSiddhant

क्या सनातन धर्म ईश्वर में विश्वास रखता है? (Does Sanatan Dharm believe in God?)

वास्तविकता तो यही है कि सनातन धर्म ही सच्चे ईश्वर में विश्वास करता है। वह मानता है कि ईश्वर एक है, सृष्टिकर्ता है, सर्वव्यापी है। वह सब के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देता है। उसका अपना/निज नाम ओ३म् है।

KyaSanatanDarmIshwermeVishvarKarta

हिंदू धर्म व सनातन धर्म में क्या अंतर है? (What is the difference between Hinduism and Sanatan Dharm?)

हिंदू शब्द मूलतः संस्कृत का शब्द नहीं है। यह शब्द वेदों में नहीं है। यह मुगलों द्वारा दिया गया एक नाम है। यह अरबी भाषा से है, लेकिन अभी वर्तमान में सनातन धर्म संस्कृति को मानने वाले लोगों ने इसे मुगलों के समय से स्वीकार कर लिया है। आर्य लोगों का अपने को हिंदू कहना और मानना भारी भूल थी। क्योंकि आर्य का अर्थ श्रेष्ठ व ईश्वर पुत्र होता है, जबकि हिंदू शब्द प्रारंभ में एक दोयम दर्जे का अर्थात त्याज्य शब्द था। उसका अर्थ भी बहुत अच्छा नहीं। लेकिन आज भी हिंदू या आर्यों का मूल धर्म ग्रंथ वेद ही है। जो आर्य राजा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र व योगीराज श्रीकृष्ण को आदर्श पुरुष मानते हैं।

HinduDharmAurSanatanDarmmeAnter

सनातन धर्म और हिंदुत्व क्या है? (What is Sanatan Dharm and Hindutva?)

सनातन धर्म को मानने वाले आज हिन्दू कहे जाते हैं और हिन्दू शब्द को सनातन धर्म का पर्याय आज विश्व में माना जाता है। हिन्दुत्व हिन्दू के अंदर रहने वाला एक गुण है जो शब्द से पृथक नहीं। हिन्दू, हिन्दुत्व शब्द चूंकि शास्त्र सम्मत नहीं होने पर भी जैसा लोक में प्रचलित हो उस शब्द के भाव/तात्पर्य को लेना अभीष्ट है। अतः यहाँ सनातन/हिन्दू धर्म/ हिन्दुत्व का समान निकटतम अभिप्राय ले सकते हैं।
नोट-: हिन्दू धर्म की विकृतियों, वेद विरुद्ध सिद्धांत व विरूद्ध आचरण को सनातन धर्म से जोड़ कर नही देखना चाहिए।

SanatanDarmAurHindutva

हिंदू का ग्रंथ कौन सा है?/भारत का पवित्र ग्रंथ कौन सा है? (Which is the Hindu scripture? / Which is the holy book of India?)

हिंदू/आर्य सनातन वैदिक धर्म को फॉलो करता है। सनातन धर्म के वेद, दर्शन आदि ही हिंदुओं/आर्यों के मूल ग्रंथ है। वेद ही भारत के व समस्त संसार के भी सर्वोच्च व सबसे पवित्र ग्रंथ हैं। हिंदू/आर्य वेदों को ईश्वर की रचना मानते हैं। इसलिए वेदों को अपौरूषेय भी कहा जाता है क्योंकि वेदज्ञान किसी मनुष्य ने नहीं दिया। यह ईश्वरीय ज्ञान नित्य है।

HindukaGranthBharatkaGranth

हिंदू/सनातन धर्म में कितने ग्रंथ है? (How many scriptures are there in Hindu/Sanatan Dharm?)

सनातन धर्म में चार वेद, चार उपवेद, वेदांग, उपनिषद्, समृतियाँ, ब्राह्मण ग्रंथ आदि बहुत महान शास्त्र परंपरा विद्यमान है जो मुक्ति के लिए पर्याप्त है। इसके अलावा हिंदू या सनातनियों का त्रेतायुग के सूर्यवंशी चक्रवर्ती राजा भगवान श्री रामचन्द्र के जीवन पर आधारित ऐतिहासिक ग्रंथ रामायण तथा द्वापर युग से चन्द्रवंशी योगीराज श्री कृष्ण के जीवन का महान ग्रंथ जयसंहिता या महाभारत है जिस अप्रतिम सत्य कथा को पांचवां वेद भी कहा जाता है।

Hindu/SanatanDarmmeKitneGranth

छ: शास्त्र कौन-कौन से हैं? (What are the six scriptures?)

योगदर्शन, सांख्यदर्शन, न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन, वेदांत तथा मीमांसा दर्शन। यह सनातन /हिंदुओं के छ: शास्त्र है। जो वेदों पर आधारित है तथा संपूर्ण जीवन को समझाने/दिशा देने वाले हैं।

ChheShastraKaunKaunSe

हिंदू का क्या अर्थ है? (What does Hindu mean?)

हिंदू का अरबी भाषा में अर्थ बुतपरस्त/काफिर है। हिन्दू शब्द का प्रयोग अरबी भाषा में अधार्मिक के लिए प्रयुक्त होता है। यह नि:संदेह अस्वीकार्य होना चाहिए।

हम आर्य है। ऋग्वेद में आर्य शब्द 31 बार आया है, जबकि हिन्दू शब्द एक बार भी नहीं आया है। वेदादि शास्त्रों, उपनिषद, रामायण, महाभारत में भी हिन्दू शब्द नहीं है। वाल्मीकि रामायण में माता सीता श्रीराम को आर्य कहती थी। आर्य शब्द श्रेष्ठता का सूचक है। जो सदाचारी हो, गुणों में श्रेष्ठ हो, आपत्ति पड़ने पर भी अकार्य नहीं करता, वह आर्य कहलाता है। 


यदि संस्कृत भाषा को ध्यान में रखकर के नवीन सिरे से हिन्दू शब्द की व्याख्या की जाए तो श्रद्धेय आचार्य आनंद प्रकाश जी ने बहुत सुंदर तरीके से इसे बतलाया है-
🌷हिनस्ति दुष्टानि हिनस्ति दुर्गुणानि हिनस्ति दुरितानि इति वा स हिन्दु:।
अर्थात जो राष्ट्र के समाज के शत्रुओं को नष्ट करता है, अपने दुर्गुणों को दूर करता है, विकारों को दूर करता है, सामाजिक बुराइयों को दूर करता है वह हिंदू है। यह परिभाषा सबको स्वीकार्य हो सकती है। परंतु अरबी भाषा वाली परिभाषा में स्वीकार्य नहीं।

HinduKaKyaArth
bottom of page