वेद (Ved)
वेद भारतीय संस्कृति के सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम ग्रंथ है। वेदमन्त्रों की रचना स्वयं परमपिता परमात्मा ने सृष्टि के आदि में की थी। वैसे तो वेद ज्ञान नित्य है। हर सृष्टि में ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना के समय प्रथम मनुष्य को दिया जाने वाला ज्ञान वेद है। वेद के अनुसार सृष्टि-प्रलय का अनादि चक्र चल रहा है जो अनंत काल तक चलता रहेगा।
आदि सृष्टि में मनुष्य कैसे उत्पन्न हुए? (How were humans born in the world?)
यह सृष्टि आज से एक अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 1 सौ 22 वर्ष पहले हुई। ईश्वर ने वेदों का ज्ञान पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले प्रथम मनुष्य को दिया। मानव की उत्पत्ति त्रिविष्टप प्रदेश जिसे आज तिब्बत कहा जाता है। हिमालय के इस भूभाग पर लगभग 200 करोड वर्ष पूर्व सर्वप्रथम मनुष्य ने अपनी आँखे खोली। उस समय यह पृथ्वी नितांत, मनुष्य से विहीन थी। इसलिए अमैथुनी सृष्टि हुई। बिना माता-पिता के ईश्वर के संकल्प व सामर्थ्य से पूर्व सृष्टि के जीवात्माओं के कर्म के आधार पर उनको यथा योग्य न्यायपूर्वक शरीर, साधन आदि ईश्वर द्वारा दिए गए। मनुष्य की उत्पत्ति भी अन्य जीवो की तरह धरती के गर्भ से हुई। इसलिये यह धरती ही हम सबकी प्रथम माता है।
🌷माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या..
हम सब इसके पुत्र-पुत्रियाँ हैं। धरती को माँ कहना कोई अंधविश्वास नहीं, बल्कि जो सभी मनुष्य की सभी शरीरों की प्रथम जननी है, इसलिए यह अपने गर्भ में धारण करने के कारण हम सबकी माता है। जब सृष्टि की रचना हुई उस समय का वातावरण व परिस्थिति के अनुसार ऐसा ही जन्म हो सकना संभव था। जैसे अंडे के अंदर से चूजे निकलते हैं वैसे ही मिट्टी के अंदर खोल बन गए और उनके अंदर ही मानव शरीर व उससे पूर्व अन्य जीवों की उत्पत्ति हुई। सब कुछ साधन व जीवन के लिए आवश्यक भोजन आदि की व्यवस्था के बाद ही जीवन का आरंभ हुआ।
ईश्वर ने वेद का ज्ञान किसे और क्यो दिया? (God gave knowledge of Vedas to whom and for what?)
वेद चार हैं। सर्वप्रथम अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा नाम से प्रसिद्ध 4 पवित्र महर्षि आत्माओं को वेदों का ज्ञान उनके अंतःकरण में ईश्वर ने स्वयं दिया कि कैसे इस संसार में जीना है। विधि, निषेध, सभी कर्तव्य, कर्म, जीवन का लक्ष्य क्या, उसमें क्या बाधा है, बाधाओं को दूर कैसे करना आदि मुक्ति प्राप्ति के लिए जो-जो भी आवश्यक ज्ञान था वह सब ईश्वर ने चारों ऋषियों को वेदों की ऋचाओं के रूप में दिया।
जिन ऋषियों पर वेद प्रकाशित हुए थे, (चूंकि सृष्टि और विनाश प्रवाह से अनादि है) वे चारों पूर्वसृष्टि में अर्थात प्रलय अवस्था से पहले की सृष्टि में सबसे अधिक पवित्र आत्मा थे। अर्थात् मोक्ष की योग्यता के अतिनिकट होने से ईश्वर कृपा के विशेष अधिकारी व सुपात्र थे।
यहाँ किसी को यह संशय हो सकता है कि क्या हर सृष्टि में अलग-अलग ऋषियों को या अलग-अलग जीवात्माओं को वेद का ज्ञान मिलेगा? या इन्हीं को मिलेगा जिन्हें अबकी बार मिला? और उनके नाम क्या होंगे? और नाम कौन रखेगा?
तो इसका उत्तर यह है कि वे मनुष्य इन अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा से अन्य भिन्न- जीवात्मा होंगे, लेकिन उनके नाम यही ज्यों के त्यों होंगे ईश्वर ही उनको उनके नाम से प्रथम संबोधित कर नामकरण करता है। अर्थात् प्रत्येक सृष्टि उत्पत्ति के आरंभ में जिस शरीरधारी जीवात्मा को भी ऋग्वेद का ज्ञान मिलेगा उसका नाम अग्नि ही होगा, जिसको यजुर्वेद का ज्ञान मिलेगा उसका नाम वायु ही होगा। यह अनादि अनंतकाल से ऐसे ही परमात्मा से आता रहा है और आगे भी हर प्रलय के बाद हर सृष्टि में मनुष्यों को मिलता रहेगा।
ऋग्वेद का ज्ञान महर्षि अग्नि के निमित्त इस संसार में आया। ऋग्वेद में ईश्वर, जीव व प्रकृति का पूरा ज्ञान है। इसमें 10,589 ऋचायें/ मंत्र हैं। इसे 10 भागों में विभक्त किया गया है। जिन्हें मंडल कहते हैं। प्रत्येक भाग में बहुत सारे सूक्त होते हैं। जिन्हें हम सुविधा के लिए अध्याय भी कह सकते हैं। कुल सूक्तों की संख्या 1,028 है।
यजुर्वेद महर्षि वायु द्वारा संसार को मिला इसमें 1975 कण्डिकायें/ऋचाये है। यजुर्वेद में विधि और निषेध अर्थात यह हम सबके कर्तव्य कर्मों को बताने वाला कर्म प्रधान वेद है।
सामवेद महर्षि आदित्य के निमित्त इस संसार को मिला। इसमें 1875 मंत्र निहित है, जो ईश्वर की उपासना व अन्य संबंधित ज्ञान से परिपूर्ण है।
अथर्ववेद हमें सर्वप्रथम महर्षि अंगिरा के द्वारा सृष्टि के आदि में दिया गया, जो 5,977 मंत्रों के साथ पदार्थ विद्या व अन्य विज्ञानों को बताता है।
वेद एक विशुद्ध ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों में कोई इतिहास नहीं है। यदि कोई वेदों में इतिहास ढूंढता है तो वह उसका सही अर्थ नहीं लगा रहा। उसमें कोई राजा रानी की कहानी नहीं है।
वेद का ज्ञान अन्य मनुष्यों तक कैसे पहुँचा? (How did the knowledge of Vedas reach other human beings?)
यह सभी वेद श्रुति परंपरा से निरंतर करोड़ों वर्षों से गुरु-शिष्य परंपरा से चलते आए हैं। इनकी रक्षा के लिए ऋषियों ने इनमें घन पाठ, जटा पाठ आदि सस्वर काव्य के रूप में पठन-पाठन की परंपरा को चालू करके इन्हें शुद्ध रखा है। वेदों की मूल ऋचाओं में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। यह संसार का एकमात्र धर्म ग्रंथ है, जिसमें किसी भी तरह से मिलावट नहीं की जा सकती है। यह ईश्वरीय ज्ञान नित्य, शाश्वत है। कुछ लोग वेदों में जादू-टोना, अंधविश्वास व हिंसा आदि का समर्थन करने की बात कहते हैं। उन लोगों ने वेदों का अर्थ ही गलत लगा रखा है। जब तक व्यक्ति ऋषियों के ग्रंथों को स्वयं ही वैदिक आचार्यो से व्याकरण, महाभाष्य, निरुक्त, षड्दर्शन आदि पढकर नहीं जानेगा, तब तक कोई कुछ भी बोले उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। इस संसार में हम सबको कैसे रहना है? कैसे जीना है? शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, राज्य व्यवस्था, कृषि व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था आदि सभी कुछ इन चारों वेदों में निहित है। प्रकृति की सुरक्षा व मनुष्य के संपूर्ण विकास के लिए पंच महायज्ञ आदि, जीवन को उन्नत बनाने के लिए आरोग्यता, सुख, शांति, आनंद, निर्भयता, स्वतंत्रता सब कुछ वेदों से ही प्राप्त हो जाता है। यह मानव के लिए संपूर्ण और सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
वेदानुसार मनुष्यों की वर्ण व्यवस्था (Varna system of humans according to the Vedas)
वर्ण व्यवस्था अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र 4 वर्णों में मनुष्य का विभाजन हुआ। इसमें जो ज्ञानवान वेदों को पढ़ने, पढ़ाने, जानने व आचरण करने वाले थे वह ब्राह्मण कहलाए। जो बलवान, बुद्धिमान व योद्धा थे जो क्षत् अर्थात चोट/शत्रुओ से त्राण/ बचाने वाले थे वे क्षत्रिय कहलाए। उन्होंने सैनिक धर्म को चुना। जो प्रजा पालन के लिए कृषि आदि व्यापार के कार्यों में लगे वह वैश्य कहलाए। जो अध्ययन में, रक्षा में तथा व्यापार आदि में उपरोक्त तीनों वर्णों का सहयोग व सेवा कार्यों में लगे वे शूद्र कहलाए। अर्थात चारों वर्ण मिलकर राष्ट्र को समाज को चलाते थे। जैसे कोई भवन 4 खंभों पर टिका होता है वैसे ही यह राष्ट्र चार वर्णों के अपने-अपने कर्तव्य पालन पर टिका रहा। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चारों वर्णों को उस समय आर्य कहा जाता था, क्योंकि यह सब श्रेष्ठ आचरण करके अपना-अपना उत्तर दायित्व निभाते थे। तथा यह जहाँ पर निवास करते थे उस स्थान का नाम आर्यावर्त था। आर्यावर्त ही हमारे देश का प्राचीन नाम है। इन चार से अन्य जो मनुष्य मनुष्यत्व से गिरकर धर्म से विमुख होकर मांसाहार आदि करके अन्य जीवो व मनुष्य को कष्ट देते थे वह सब अनार्य कहलाए अर्थात दस्यु कहलाए। उनका राष्ट्र के अंदर कोई स्थान नहीं होता था।
वेदानुसार मनुष्यों की आश्रम व्यवस्था (Ashram system of humans according to the Vedas)
इसी प्रकार व्यक्तिगत रूप से मनुष्य के जीवन को उसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चार भागों में बांटा गया। 100 वर्ष की औसत आयु को प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम, 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम तथा 75 वर्षों से आगे का जीवन सन्यास आश्रम। यह वैदिक व्यवस्था थी। अर्थात वेद के अनुकूल समाज की रचना जिसमें गर्भाधान संस्कार से लेकर अंतिम संस्कार तक सभी निर्माण के साधन व्यवस्थित किए गए। जिससे एक वैश्विक व सभ्य सुसंस्कृत मनुष्य का निर्माण हो सके। यह चार आश्रम तथा चार वर्णों की व्यवस्था संपूर्ण विश्व को भारतीय संस्कृति अर्थात वेद संस्कृति की अनुपम, अद्वितीय देन है। यदि आज भी इस आश्रम व्यवस्था को अपनाया जाए तो सारा संसार व्यवस्थित और बहुत सुंदर बन जाएगा। ऋषियों की धरोहर ईश्वरीय ज्ञान वेद नित्य है और उतने ही प्राचीन हैं जितने कि यह सृष्टि। तीनों लोकों में तीनों कालों में भूत, भविष्य, वर्तमान से संबंधित सभी ज्ञान-विज्ञान, उपासना और कर्म-अकर्म का बोध वेदों से ही मानव को हुआ।