योग (Yog)
'योग' शब्द संस्कृत भाषा में युजिर् योगे, युज् समाधौ व युज् संयमने धातुओं से निष्पन्न होता है। जिसके अर्थ है, जोड़ना, समाधि व संयम।
आज तो संसार में योग शब्द को योगा कहकर के पुकारा गया जो कि इसके मूल से ही हट गया है। यह बहुत ही हर्ष का विषय है कि संसार में योग का प्रचार स्वास्थ्य को आधार बनाकर के हुआ, लेकिन यह विडंबना है कि योग का सही अर्थ व परिभाषा न जान कर केवल कुछ व्यायाम आसन व सांसो की क्रियाओं को ही योग के रूप में प्रसिद्धि मिली है। जबकि योग का ठीक-ठीक अर्थ जानने, समझने व उसका अभ्यास करने के लिए तो महर्षि पतंजलि की शरण में आना ही पड़ेगा। उनके लिखे अप्रतिम ग्रंथ 'योग दर्शन' के सिद्धांतों को, परिभाषा व अष्टांग योग को जाने बिना यह संसार योग के नाम पर केवल शरीर को तोड़ना-मरोड़ना व कुछ बाहरी क्रियाओं को करते हुए उसके सर्वोत्तम लाभ व प्राप्ति से वंचित ही रह जाएगा। आसन और प्राणायाम अष्टांगयोग के दो अंग है, लेकिन वह भी योग के नाम पर की जा रही क्रियाओ से भिन्न है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्त/मन के विचारों/वृत्तियों को रोककर आत्मा को ईश्वर में स्थित करके समाधि लगाना योग है।
ऋषियों के अनुसार योग की विभिन्न परिभाषाएँ (Different definitions of Yog according to sages)
योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है -
🌷योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। (यो.सू.1/2 )
अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य अन्त:करण से है।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है-
🌷संयोग योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो।
अर्थात् जीवात्मा व परमात्मा के संयोग की अवस्था का नाम ही योग है।
महर्षि व्यास के अनुसार
🌷योग: समाधि:
अर्थात् योग नाम समाधि का है, जिसका भाव है कि जीवात्मा सच्चिदानंद परमेश्वर का साक्षात्कार करे, यही योग है।
मनुस्मृति के अनुसार
🌷ध्यानं योगेन सम्यश्यदगतिस्यान्तरात्मन: (16, 731)
अर्थात् ध्यान योग से भी जीवात्मा को जाना जा सकता है, अत: ध्यान भी योग पारायण होना चाहिए।
सांख्य में कहा है-
🌷पुरुष प्रकृत्योतियोगेपि योग इत्यभिधीयते
अर्थात् प्रकृति पुरुष का वियोग स्थापित कर। अर्थात् दोनों का वियोग करके, पुरुष के स्वरुप में स्थित हो जाना ही योग है।
कैवल्योपनिषद मे कहा है-
🌷श्रद्धा भक्तियोगावदेहि
अर्थात् श्रद्धा, भक्ति और ध्यान के द्वारा आत्मा को जानना ही योग है।
वैशेषिक दर्शन में योग को परिभाषित किया है-
🌷तदनारम्भ आत्मस्ये मनसि शरीरस्य दुखाभाव: संयोग: (वैशेषिक सूत्र 6/2/16)
अर्थात् जब योगी मन और आत्मा में स्थिर हो जाता है तब बाहरी विषयों से रहित होकर मन का कार्य रुक जाता है। यही मन का अनारम्भ है। इसी को योग कहते है।
कठोपनिषद् में योग के विषय में कहा गया है-
🌷यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिष्च न विचेश्टति तामाहु: परमां गतिम्।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभावाप्ययौ।। (कठो.2/3/10-11 )
अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के साथ स्थिर हो जाती है और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है, उस अवस्था को ‘परमगति’ कहते है।
इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, अर्थात् प्रमाद हीन हो जाती है, उसमें शुभ संस्कारो की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारो का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग है।
मैत्रायण्युपनिषद् में कहा गया है -
🌷एकत्वं प्राणमनसोरिन्द्रियाणां तथैव च.। सर्वभाव परित्यागो योग इत्यभिधीयते।। (6/25 )
अर्थात प्राण, मन व इन्द्रियों का एक हो जाना, एकाग्रावस्था को प्राप्त कर लेना, बाह्य विषयों से विमुख होकर इन्द्रियों का मन में और मन आत्मा में लग जाना, प्राण का निश्चल हो जाना योग है
🌻योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग को कुछ इस प्रकार से परिभाषित किया है-
🌷योगस्थ: कुरू कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय:।सिद्ध्यसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। (2/48)
अर्थात् - हे धनंजय! तू आसक्ति त्यागकर समत्व भाव से कार्य कर। सिद्धि और असिद्धि में समता-बुद्धि से कार्य करना ही योग हैं।
सुख-दु:ख, जय-पराजय, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों में एकरस रहना योग है।
🌷बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृतें। तस्माद योगाय युज्यस्व योग: कर्मसुकौशलम्।। (2/50 )
अर्थात् कर्मो में कुशलता ही योग है। कर्म इस कुशलता से किया जाए कि कर्म बन्धन न कर सके। अर्थात् अनासक्त भाव से कर्म करना ही योग है। योगेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र जी के समक्ष कैसी भी परिस्थिति हों वे सदा अनासक्त होकर मुस्कुराते रहते थे, क्योंकि वे महान योगी थे। वे स्वयं प्रतिदिन योगाभ्यास करते थे, चाहे वो अष्टांगयोग का अभ्यास हो या शारीरिक योगाभ्यास।
महाभारत में श्रीकृष्ण जी के विषय में प्राप्त होता है-
🌷अत्रतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि। रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह।। (महा० उद्योग०८४/२१)
जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण शीघ्र ही रथ से उतरे और घोडों को रथ से खोलने की आज्ञा देकर और विधिपूर्वक शौच-स्नान करके सन्ध्योपासना करने लगे।
🌷ब्रह्ममुहूर्त उत्थाय वाय्रुपस्प्रश्य माधव:। दध्यो प्रसन्नकरण आत्मनं तमस: परम् ।। (भा० पु० ९०.७०.४)
श्रीकृष्ण जी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर, पवित्र जल से हाथ मुंह धोकर, अत्यन्त प्रसन्न हो, हृदय में प्रकृति से परे ज्योतिस्वरुप परब्रह्म का ध्यान करने लगे।
अष्टांगयोगाभ्यास में यम, नियम, ध्यान आदि का समावेश होता है। मानसिक विकारों के दूर करने के लिए अष्टांगयोग आदि के अभ्यास के साथ शारीरिक योगाभ्यास को भी अपनाएँ और जीवन को स्वस्थ्य, निरोग और उन्नत बनाएँ।
तो आइये अपनाते हैं, हमारे ऋषियों की प्राचीन विधी योग को,,,
महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्ग योग (Ashtang Yog as described by Maharishi Patanjali)
महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्ग योग
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इन 8 अंगों का विधिवत पालन व अभ्यास करने से मनुष्य ईश्वर प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।
-
यम - ये पांच होते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह।
-
नियम - यह भी पाँच होते हैं। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान।
-
आसन
-
प्राणायाम
-
प्रत्याहार
-
धारणा
-
ध्यान
-
समाधि
यहाँ हम प्रत्येक को संक्षिप्त में प्रस्तुत कर रहे है-
1. यम
ये पांच होते हैं।
अहिंसा - अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन,वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना, किसी को हानि न पहुँचाना और किसी के प्रति द्वेष, वैरभाव न रखना अहिंसा है। उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे, सबसे प्रेम करे। उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो। पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीनों काल में भी योगी नहीं बन सकते। साधक को प्रत्येक स्थान में, प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए। 'अहिंसा परमो धर्म:' अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना। जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े, तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई।
सत्य - सत्य द्वितीय यम है। साधक मन, वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने, सत्य बोले और सत्य ही लिखे, मिथ्या-असत्य न बोले, न मिथ्या व्यवहार करे। सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा। सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा, सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा। साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है। सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
वेदादि शास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-
🌷सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। (मुण्डको ३/१/५)
परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।
🌷सत्यमेव जयते नानृतम्। (मुण्डको ३/१/६)
सत्य की ही विजय होती है,असत्य की नहीं।
महाभारत में कहा गया है-
🌷सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। (महाभारत उद्यो ३३/४७)
सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।
महर्षि मनु का कथन है-
🌷नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। (मनु स्मृति ८/८२)
सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।
अस्तेय - यमों में तीसरा यम है अस्तेय। स्तेय का अर्थ है चोरी करना, अस्तेय का अर्थ है मन, वचन और कर्म से चोरी न करना। साधक चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे। किसी वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाए।
स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है। आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है। बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास(Pass) अथवा 'सीजनल टिकट' है, ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है। खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है। उत्कोच(घूस) देकर काम बना लेना भी चोरी है।
मनुष्य चोरी क्यों करता है? चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएँ और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं। चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।
ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है- ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य। चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा - साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे(वेदानुकूल आचरण करना), वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।
ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वासनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है। विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल है, अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है। साधक जितेन्द्रिय हो।
उपनिषदों में कहा गया है-
🌷नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:। (मुण्डको० ३/२/४)
ब्रह्मचर्य के बल से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।
साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है, जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्। इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता। ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है।
वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-
🌷ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत। (अथर्ववेद ११/५/१९)
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मृत्यु को भी पराजित कर देते है।
उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए। आँखों के रूप में जाने से, कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से, नासिका को गन्ध की ओर भागने से, जिह्वा को रसपान से, त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोकना चाहिए।
अपरिग्रह - अपरिग्रह अर्थात आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना। साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं। किसी भी वस्तु को खरीदने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो। यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो। पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।
विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय(नाश), सङ्ग, हिंसा आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना, उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है अर्थात हानिकारक, अनावश्यक वस्तु और अभिमान आदि हानिकारक अनावश्यक अशुभ विचारों को त्याग देना अपरिग्रह है।
ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।
2. नियम
नियम भी पांच हैं-
शौच - शौच अर्थात पवित्रता। साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे। राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जल आदि के द्वारा बाह्य शुद्धि करनी चाहिए। शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, अतः शरीर को स्नान से पवित्र करना चाहिए। वेश-भूषा भी पवित्र हो, रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो। गन्दे और जहाँ सामान अस्त-व्यस्त पड़ा हो ऐसे स्थान पर भी मन नहीं लग सकता। अन्तः शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए। अण्डा, मांस-मछली खानेवाले, शराब पीनेवाले, सिगरेट, बीड़ी, चरस, गांजा, अफीम सेवन करने वालों का मन भी दूषित हो जाता है।
शौच से बुद्धि की शुद्धि, मन की विमलता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।
सन्तोष - सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है। सन्तोष का अर्थ है - आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना। धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना। सन्तोष, सुख और शान्ति प्राप्त करने की कुञ्जी है।
महर्षि व्यास लिखते हैं-
🌷यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत: षोडशीं कलाम्।। (महाभारत शान्ति० १७६/४६)
इस संसार में काम्य वस्तु का जो उपभोगजनित सुख है अथवा स्वर्ग का जो महान् सुख है, वह तृष्णाक्षय से उत्पन्न होने वाले सुख के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।
हाँ, एक बात का ध्यान रखें। सन्तोष सांसारिक बातों में ही करना चाहिए, साधना में नहीं। साधना में तो असीम असन्तोष होना चाहिए। साधक को प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।
तप - तप के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं। कोई समझता है कि एक पाँव पर खड़े रहना अथवा एक या दोनों हाथ ऊपर खड़े रखने का नाम तप है। कोई समझता है कि शीत ऋतु में ठण्डे पानी में खड़ा रहना तप है। कोई समझता है कि ग्रीष्मकाल में पञ्चाग्नि तपना तप है। किसी के अनुसार स्वयं को पृथिवी में गाड़ देना तप है। किसी के मत में कीलों पर लेटना तप है। वस्तुतः यह सब-कुछ तप नहीं है। तप का वास्तविक अर्थ है-'द्वन्द्वसहनं तप:' अर्थात हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है। कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है।
तप का धातु-अर्थ है 'तप दाहे' अर्थात जलना-जलाना। अग्नि के दो गुणों का सदा ध्यान रखना चाहिए। यह पदार्थों को शुद्ध करती है और तेजयुक्त है। तप भी एक प्रचण्ड प्रक्रिया है जो मनुष्य के मलों को जलाकर उसे आत्मचैतन्य के प्रकाश से उजागर करती है। तप का फल है बल की प्राप्ति। जिस तप से शरीर में कान्ति, ओज और तेज की वृद्धि नहीं होती, वह तप नहीं है। तप न करने पर योग में गति नहीं हो सकती।
जैसा कि कहा गया है-
🌷नातपस्विनो योग: सिध्यति।
अर्थात जो तपस्वी नहीं है,उससे योग सिद्ध नहीं हो सकता।
उपनिषदों में कहा गया है-
🌷तपसा चीयते ब्रह्म। (मुण्डको० १/१/८)
अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है।
वेद में कहा है-
🌷अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। (ऋ० ९/८३/१)
अर्थात जिसने तप की भट्टी में अपने शरीर को तपाया नहीं है, ऐसा कच्चा व्यक्ति उस प्रभु को नहीं पा सकता।
स्वाध्याय - नियम का चतुर्थ अङ्ग है स्वाध्याय। स्वाध्याय का अर्थ है वेद का अध्ययन-अध्यापन और ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित सत्यशास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना। वेद परमात्मा का दिव्यज्ञान है। यह मानव कर्त्तव्यों का बोधक शास्त्र है, ज्ञान और विज्ञान का अगाध भण्डार है। अपने कर्त्तव्यों को जानने के लिये वेद का स्वाध्याय करना ही चाहिए। ऋषि-मुनिकृत ग्रन्थों में वेदों का व्याख्यान है, इसलिए उन्हें भी पढ़ना चाहिए।
मोक्ष-विधायक ग्रन्थों का पढ़ना ही स्वाध्याय है। समाचार-पत्र पढ़ना, नावल, किस्से-कहानियाँ और अश्लील पुस्तकें पढ़ना स्वाध्याय नहीं है।साधक को सदा उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
उपनिषदों में कहा है-
🌷स्वाध्यायान्मा प्रमद:। (तैत्तिरीयोप० शिक्षा ११)
अर्थात स्वाध्याय में, वेद के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।
स्वाध्याय का अर्थ है सत्पुरुषों का सङ्ग। साधक को सदा सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। सत्सङ्ग से मनुष्य ऊंचा उठता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती का सत्सङ्ग पाकर नास्तिक, शराबी और कबाबी मुंशीराम परम आस्तिक स्वामी श्रद्धानन्द बन गए। महता अमीचन्द भी बदल गए। पंडित लेखराम आर्यमुसाफिर, पंडित गुरुदत्त जी विद्यार्थी आदि कितनों के जीवन पलट गए।
स्वाध्याय का एक और अर्थ है प्रतिदिन परमात्मा के सर्वोत्तम नाम 'ओ३म्' का अर्थपूर्वक जप करना।
वेद में कहा है-
🌷ओ३म् क्रतो स्मर। (यजुर्वेद ४०/१५)
हे कर्मशील जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर।
और
🌷ओ३म् प्रतिष्ठ। (यजुर्वेद २/१३)
तू ओ३म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ३म् को/ओ३म् नामक परमात्मा को अपने हृदय-मन्दिर में बिठा ले।
ईश्वरप्रणिधान - नियमों में ईश्वरप्रणिधान का स्थान सर्वोच्च है। ईश्वरप्रणिधान के दो अर्थ हैं- एक, बिना किसी इच्छा, आकांक्षा और माँग के अपने आपको, अपने सब कामों को, अपने सब संकल्पों को प्रभु को समर्पित कर देना। जो परमात्मा से कुछ माँगते हैं, उन्हें तो प्रभु केवल वही वस्तु देता है, जो वे माँगते हैं, परन्तु जो कुछ नहीं माँगते, उन्हें परमेश्वर सब-कुछ देता है। और अन्त में अपने आपको भी दे देता है, अपना साक्षात्कार भी करा देता है। दूसरा अर्थ है- हृदय में ईश्वर का प्रेम रखते हुए, ईश्वर की विशेष भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा, दया और प्रसन्नता का पात्र बनना। ईश्वरप्रणिधान से अहं-भाव नष्ट होता है और जीवन में नम्रता आती है।
ये पांच नियम मिलकर उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहलाता है।
🌻यम-नियमों की आवश्यकता क्यों?
योग सिद्धि या समाधि के लिए यम-नियमों का पालन करना क्यों अत्यंत आवश्यक व अनिवार्य योग्यता है! वह इसलिए क्योंकि संसार में एक सुप्रीम व्यवस्था कार्य कर रही है और यह सारा जगत उसके नियमों के या कहे कि विधान के अंदर रहकर कार्य करता है। प्रत्येक जीवात्मा अपने लिए सुख चाहता है दु:ख नहीं चाहता। हिंसक व्यक्ति भी अपने प्रति हिंसा नहीं चाहता। चोर भी अपने प्रति चोरी पसंद नहीं करता, झूठा व्यक्ति भी नहीं चाहता कि कोई उसके साथ झूठ बोले। गंदगी फैलाने वाला स्वयं भी शुचिता में रहना पसंद करता है। यदि उसके सामने दो विकल्प/स्थान रखे जाए तो वह श्रेष्ठ का ही चयन करेगा। जैसा जीवात्मा अपने प्रति व्यवहार चाहता है क्या अन्यों के प्रति उसको विपरीत आचरण करना अभीष्ट है!
🌷आत्मना प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
जो अपने (आत्मा) को प्रतिकूल लगता है वैसा आचरण दूसरों के साथ न करना ही धर्म है। संसार में देव और राक्षस की परिभाषा करते हुए स्वामी महर्षि दयानंद जी कहते हैं कि जो विद्वान हैं वे सब देव है और राक्षस कोई अलग विकृत शरीर और आकृति के जीव नहीं है बल्कि जो पापी मनुष्य है वही राक्षस है।
पाप और पुण्य का संबंध हमारे शुभ और अशुभ कर्मों से हैं। मन वाणी व शरीर से किए जाने वाले शुभ-अशुभ कर्म ही हमें सुख या दु:ख प्रदान करते हैं। यम-नियमों का संबंध हमारे शुद्ध आचरण से हैं, जिससे हम पाप कर्मों से बच सके और पाप का फल भोगने के लिए ईश्वर के दंड का भागी न बनना पडे। हिंसा से बचने के लिए यमों का विधान है तथा यमों(अहिंसा, सत्य आदि) की स्थिरता व सिद्धि में नियम (शौच, संतोष आदि) आवश्यक व सहयोगी है।
इनमें यम सार्वभौमिक महाव्रत कहलाते हैं। जिनका उल्लंघन कभी नहीं करना चाहिए। आपात् स्थिति में नियमों में छूट हो जाती है। यात्रा, रोग, भूख, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय कर्त्तव्य पालन करने आदि स्थिति में नियमों का उल्लघंन होने पर दोष नहीं लगता। यदि किसी को ज्वर है तो स्नान नहीं करने पर कोई पाप नहीं लगता। ऐसे ही राजा यदि प्रजा के लिए शुभ कार्य में व्यस्त हैं तो संध्या न करने का पाप नहीं लगता। लेकिन वह अपवाद है नियम नहीं। यदि समय, अनुकूलता है तो अवश्य ही नियमों का पालन भी करना चाहिए।
3. आसन
यह योग का तीसरा अंग है। महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन का अर्थ है-
🌷स्थिरसुखमासनम्। (योगदर्शन साधन० ४६)
शरीर न हिले-डुले, न दु:खे और चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, ऐसी अवस्था में दीर्घकाल तक सुख से बैठने को आसन कहते हैं।
साधक को ऐसे आसन में बैठना चाहिए जिसमें कष्ट न होकर स्थिर सुख की प्राप्ति हो। आसन के दृढ़ होने पर उपासना सरल हो जाती है। एक आसन में निश्चलतापूर्वक बैठने से श्वास-प्रश्वास की गति संयत होने लगती है और मन भी लय होने लगता है। आसन निरन्तर अभ्यास से ही सिद्ध किया जा सकता है।
आसनों के अनेक भेद है। आसनों का प्रयोग दो प्रकार से किया जाता है। जिन आसनों का प्रयोग शरीर को स्वस्थ और बलवान बनाने के लिए किया जाता है वह व्यायाम संबंधी आसन है। जिन आसनों का प्रयोग धारणा, ध्यान, समाधि के लिए किया जाता है वह योगासन है। सभी आसनों का नाम योगासन नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि 3 या 4 घंटे तक आसन में बैठने से ही ध्यान हो सकता है। जितने काल तक बैठा जा सके उतने काल तक ध्यान किया जा सकता है। योगसाधना के लिए मुख्यासन चार हैं- सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन और सुखासन।
4. प्राणायाम
प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ-जहाँ प्राण जाता है, वहाँ-वहाँ मन भी जाता है। यदि प्राण वश में हो जाए तो मन बिना प्रयास के स्वयं वश में हो जाता है।
प्राणायाम क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
🌷तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। (योगदर्शन साधन० ४९)
आसन सिद्ध होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को रोक देना प्राणायाम कहलाता है।
श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही यथाशक्ति रोक देना बाह्य प्राणायाम है। श्वास को अंदर लेकर यथाशक्ति अंदर ही रोक लेना अभ्यांतर प्राणायाम है। प्राणायाम करने की सही विधि जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
5. प्रत्याहार
इंद्रियों का अपने विषयों के साथ संबंध ना होने पर चित्त के अनुसार होना प्रत्याहार कहलाता है। जब आँखें खुली रहने पर भी रूप को देखना बन्द कर दें, कान शब्दों का सुनना बन्द कर दें, नासिका गन्ध को ग्रहण न करे, जिह्वा रस को न चखे और त्वचा स्पर्श का अनुभव न करे, उस अवस्था का नाम प्रत्याहार है।
मोटे शब्दों में कहें तो मन को एक लक्ष्य पर एकाग्र करने के लिए उसे बाह्य विषयों से समेटने का नाम प्रत्याहार है। बाह्य विषयों से हटने पर ही मन को ध्यान/लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है। प्रत्याहार वह महान् कुञ्जी है जो धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारों को खोल देती है।
6. धारणा
धारणा का अर्थ है मन को एकाग्र करना, मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना।
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-
🌷देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। (योगदर्शन विभूति० १)
चित्त को किसी देश/स्थानविशेष में, शरीर के भीतर या बाहर बांधने/लगाने का नाम धारणा है।
धारणा के दो स्थान है। आंतरिक और बाह्य। नाभिचक्र, हृदय, भ्रूमध्य, नासिकाग्र आदि किसी स्थान पर चित्त को ठहराना आंतरिक देश में धारणा है। किसी वृक्ष के स्वरूप को जानने के लिए अपने चित्त को वृक्ष के किसी भाग में स्थित करे तो यह बाह्य देश में धारणा है। धारणा का प्रयोग दो प्रकार से होता है। एक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करने के लिए और दूसरा किसी पदार्थ के स्वरूप को जानने के लिए। जब ईश्वर की उपासना की जाती है तब हृदय प्रदेश में चित्त को स्थिर करके की जाती है।
7. ध्यान
धारणा की परिपक्वता का नाम ही ध्यान है।
🌷तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। (योगदर्शन विभूति० २)
धारणा में प्रत्यय-ज्ञान का एक-सा बना रहना ही ध्यान है। जिस स्थान पर चित्त को एकाग्र किया गया है, उस एकाग्रता का ज्ञान तैलधारावत् निरन्तर एक-सा बना रहे और उस समय अन्य किसी प्रकार का ज्ञान या विचार चित्त में न आने पाए, इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं।
ध्यान करते समय जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है उस को छोड़कर अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना चाहिए। यहाँ पर यह बात ध्यान देने की है कि कुछ भी ना विचारने का नाम ध्यान नहीं है। ध्यान काल में जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह पदार्थ और उसका नाम दोनों का ज्ञान साधक को होना चाहिए। जैसे ईश्वर का ध्यान करते समय उसका नाम ओ३म् है यह पता होना । ओम का अर्थ सहित बार-बार जप करना और अन्य विषय में मन को ना लगाना ध्यान है। ध्यान करने की सही विधि, नियम आदि जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
8. समाधि
महर्षि पतंजलि जी कहते हैं-
🌷तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। (योगदर्शन विभूति० ३)
ध्यान में जब अर्थ-ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता(उपासक) अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाए, उस अवस्था का नाम समाधि है।
चित् की एकाग्र अवस्था जिसमें ध्याता(meditator), ध्यान(process) व ध्येय(goal) रूप त्रिपुटी(वस्तु) का अनुभव होता है उसको ध्यान कहते हैं और केवल ध्येय(जिस वस्तु में एकाग्रता व समाधि की जाए) केवल उसके एकमात्र भान/अनुभव को समाधि कहते हैं। और यह जीवित रहते समर्थ ज्ञानी मनुष्य की आत्मा या ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था है।
जिस अवस्था में योगी को उक्त समाधि के अभ्यास से ध्येय-अनध्येय सभी पदार्थों का हस्तामलकवत्(हथेली पर रखे आंवला फल की तरह) साक्षात्कार होता है उसको सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इसी का नाम सबीज समाधि है। तथा ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था को असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। इसी को निर्बीज समाधि भी कहते हैं। यह मन की निरुद्ध अवस्था है।
जीवन में "समाधि" शब्द अधिकांश मनुष्य कहीं ना कहीं अवश्य ही सुन/पढ लेते हैं इसमें संशय नहीं। लेकिन अध्यात्म से और वेद शास्त्रों से विमुख हुए/दूर हुए पढ़े-लिखे, आधुनिक, उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी समाधि का अर्थ किसी को गड्ढे में मिट्टी के नीचे दफना देना या किसी साधु महात्मा को जल समाधि, भू समाधि, अग्नि समाधि आदि कथा-कहानियाँ पढ़कर उसी को समाधि समझता है। व्यक्ति समाधि के विषय में पूर्णतः अनभिज्ञ है, क्योंकि वह संसार में रहते हुए अनेक विद्याओं को ग्रहण करता है, लेकिन जो जीवन का उद्देश्य है, वास्तविकता है, अंतिम परिणति/गंतव्य है उसी के बारे में शून्य ज्ञान रखता है। आपने भी सुना होगा कि अमुक-अमुक व्यक्ति की समाधि वहाँ बनी हुई है। यहाँ पर इस व्यक्ति की समाधि है। इधर लोग दीप जलाने, फूल चढ़ाने, श्रद्धांजलि देने आते हैं।
वास्तव में वेद ज्ञान का प्रचार प्रसार न होने के कारण आज मानव की ऐसी दुर्दशा हुई है कि वह कब्र में दबे हुए मनुष्य को समाधि प्राप्त बताता है। वह गड्ढे में दबे हुए मनुष्य को ही समाधिस्थ मानता है। मनुष्य ने कभी जानने के लिए जिज्ञासा प्रकट नहीं की कि समाधि किसे कहते हैं? यह क्या है? इसे कैसे प्राप्त करते हैं? इससे क्या होता है? इस बारे में कभी भी कोई दार्शनिक चिंतन जीवन में नहीं होने के कारण मानव अंधविश्वास व पाखंड को ही जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि मानने लगता है। क्या ईश्वर प्राप्ति करना इतना सरल है कि बस केवल मृत्यु होने मात्र से उसको जमीन में दफना देने का नाम समाधि बता दिया जाए और मुक्ति हो जाए।
यह धर्म, दर्शन, अध्यात्म, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म/आचरण व शुद्ध उपासना व्यर्थ में कोई क्यों करेगा? जब ऐसे ही मृतक को जमीन में गड्ढा खोदकर ऊपर से चार ईटे रख देने का नाम समाधि हो जाएगा! यह विकृति है, कुरीति है और वेद विरुद्ध आचरण है। इससे अज्ञानता और पाप के सिवाय कुछ भी नहीं मिलेगा।
योग के इन आठ अङ्गों को साधे बिना कोई भी साधक साधना में सफल नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक उपासक, साधक, भक्त को इनका अभ्यास करना चाहिए।
🌻क्या केवल ईश्वर भक्ति (उपासना) से ईश्वर प्राप्ति/कृपा संभव है?
केवल भक्ति मार्ग या उपासना से ईश्वर की कृपा प्राप्त नहीं की जा सकती। जब तक की वेदज्ञान पूर्वक आचरण नहीं हो तब तक उपासना भी एक कर्मकांड बनकर रह जाएगी। यह कैसे संभव है कि मनुष्य यम-नियमों का पालन न करें। ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करें और ईश्वर का प्रिय हो जाए। राजा के संविधान का उल्लंघन करके कोई राजा का प्रिय नहीं हो सकता। माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला उनका पुत्र उन्हें प्रिय नहीं लगता, जबकि माता-पिता तो मोह, राग व अन्याय पूर्वक व्यवहार भी कर सकते हैं। तो क्या सच्चिदानंद स्वरूप न्यायकारी परमेश्वर किसी के नाम जपने मात्र से खुश हो जाए और उस पर कृपा कर दें। आचरण व्यवहार को बिल्कुल नजरअंदाज करके उसे मुक्ति प्रदान करें। वास्तविकता तो यही है की जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल अच्छा आचरण करता है उस पर उसकी कृपा बिना मांगे ही हो जाती है। इसलिए किसी लेखक की यह पंक्तियां कि "कपटी भक्त से सत्यनिष्ठ नास्तिक बहुत अच्छा होता है" एकदम सही लगती है। और यदि सत्यनिष्ठ आस्तिक है तो वह ईश्वर के समीप स्वत: ही हो जाता है।
इसलिए ईश्वर की कृपा का पात्र बनने के लिए केवल भक्ति नहीं बल्कि शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म व शुद्ध उपासना अत्यंत आवश्यक है।
अष्टांग योग का फल (Outcome of Ashtang Yog)
योग के आठ अङ्गों का फल :-
यमो का फल
-
अहिंसा - अहिंसा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति के मन से समस्त प्राणियों के प्रति वैर भाव (द्वेष) छूट जाता है, तथा उस अहिंसक के सत्सङ्ग एवं उपदेशानुसार आचरण करने से अन्य व्यक्तियों का भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार वैर-भाव छूट जाता है।
-
सत्य - जब मनुष्य निश्चय करके मन, वाणी तथा शरीर से सत्य को ही मानता, बोलता तथा करता है तो वह जिन-जिन उत्तम कार्यों को करना चाहता है, वे सब सफल होते हैं।
-
अस्तेय - मन, वाणी तथा शरीर से चोरी छोड़ देने वाला व्यक्ति, अन्य व्यक्तियों का विश्वासपात्र और श्रद्धेय बन जाता है। ऐसे व्यक्ति को आध्यात्मिक एवं भौतिक उत्तम गुणों व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है।
-
ब्रह्मचर्य - मन, वचन तथा शरीर से संयम करके, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति को, शारीरिक तथा बौद्धिक बल की प्राप्ति होती है।
-
अपरिग्रह - अपरिग्रह धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति में आत्मा के स्वरुप को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है, अर्थात् उसके मन में 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा, मुझे क्या करना चाहिए, मेरा क्या सामर्थ्य है, इत्यादि प्रश्न उत्पन्न होते हैं।
नियमों का फल
-
शौच - बार-बार शुद्धि करने पर भी जब साधक व्यक्ति को अपना शरीर गन्दा ही प्रतीत होता है तो उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती और वह दूसरे व्यक्ति के शरीर के साथ अपने शरीर का सम्पर्क नहीं करता। आन्तरिक शुद्धि से साधना की बुद्धि बढ़ती है, मन एकाग्र तथा प्रसन्न रहता है, इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है तथा वह आत्मा-परमात्मा को जानने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है।
-
सन्तोष - सन्तोष को धारण करने पर व्यक्ति की विषय भोगों को भोगने की इच्छा नष्ट हो जाती है और उसको शांति रुपी विशेष सुख की अनुभूति होती है।
-
तप - तपस्या का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति का शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ, बलवान तथा दृढ़ हो जाती हैं तथा वे उस तपस्वी के अधिकार में आ जाती हैं।
-
स्वाध्याय - स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति की आध्यात्मिक पथ पर चलने की श्रद्धा, रुचि बढ़ती है तथा वह ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों को अच्छी प्रकार जानकर ईश्वर के साथ सम्बन्ध भी जोड़ लेता है।
-
ईश्वर प्रणिधान - ईश्वर को अपने अन्दर–बाहर उपस्थित मानकर तथा ईश्वर मेरे को देख, सुन, जान रहा है ऐसा समझने वाले व्यक्ति की समाधि शीघ्र ही लग जाती है।
योग के शेष अङ्गों का फल
-
आसन - आसन का अच्छा अभ्यास हो जाने पर योगाभ्यासी को उपासना काल में तथा व्यवहार काल में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्व कम सताते हैं, तथा योगाभ्यास की आगे की क्रियाओं को करने में सरलता होती है।
-
प्राणायाम - प्राणायाम करने वाले व्यक्ति का अज्ञान निरन्तर नष्ट होता जाता है तथा ज्ञान की वृद्धि होती है। स्मृति-शक्ति तथा मन की एकाग्रता में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है। वह रोग-रहित होकर उत्तम स्वास्थय को प्राप्त होता है।
-
प्रत्याहार - प्रत्याहार की सिद्धि होने से योगाभ्यासी का इन्द्रियों पर अच्छा नियन्त्रण हो जाता है अर्थात् वह अपने मन को जहाँ और जिस विषय में लगाना चाहता है, लगा लेता है तथा जिस विषय से मन को हटाना चाहता है, हटा लेता है।
-
धारणा - मन को एक ही स्थान पर स्थिर करने के अभ्यास से तथा ईश्वर विषयक गुण-कर्म-स्वभावों का चिन्तन करने से (ध्यान में) दृढ़ता आती है, अर्थात् ईश्वर विषयक ध्यान शीघ्र नहीं टूटता। यदि टूट भी जाय तो दोबारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
-
ध्यान - ध्यान का निरन्तर अभ्यास करते रहने से समाधि की प्राप्ति होती है तथा उपासक, व्यवहार सम्बन्धी समस्त कार्यों को दृढ़तापूर्वक, सरलता से सम्पन्न कर लेता है।
-
समाधि - समाधि का फल है ईश्वर का साक्षात्कार होना। समाधि अवस्था में साधक समस्त भय, चिन्ता, बन्धन आदि दु:खों से छूटकर ईश्वर के आनन्द की अनुभूति करता है तथा ईश्वर से समाधि काल में ज्ञान, बल, उत्साह, निर्भयता, स्वतन्त्रता आदि की प्राप्ति करता है। इसी प्रकार बारम्बार समाधि लगाकर अपने मन पर जन्म-जन्मान्तर के राग-द्वेष आदि अविद्या के संस्कारों को दग्धबीजभाव अवस्था में पहुँचाकर (नष्ट करके) मुक्ति पद को प्राप्त कर लेता है।